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स्याद्वाद
१३१ ही है पर परिस्थितियों के भेद से वह छोटा व लम्बा लगने लगता है। सापेक्षवाद भी हर कथन व घटना के पीछे जुड़ी अपेक्षा को मुख्यता देता है । ऐसा लगता है भगवान महावीर के स्यादवाद दर्शन का संप्रेषण आइन्सटीन में हुआ और उसकी निम्पत्ति सापेक्षवाद के रूप में हुई। निश्चित ही स्यादवाद को विज्ञान का बहुत बड़ा
समर्थन है। एक छात्र-सर एक जिज्ञासा है कि दर्शन के अलावा भी क्या स्यादवाद की
शैली का प्रयोग हुआ है ? अध्यापक-कोई भी वाग्विन्यास स्यावाद की मुद्रा से अछूता नहीं रह सकता।
सभी धर्म दर्शनों ने तत्त्वप्रतिपादन में इस शैली को अपनाया है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरक संहिता का एक श्लोक है जिसमें स्याद्वाद दर्शन का प्रतिबिम्ब झलकता है। “योगादपि विषं तीक्ष्णं, उत्तम भेषजं भवेत, भेषजं चापि दुर्यक्तं, तीक्ष्णं सम्पद्यते विषम् ॥" तीक्ष्ण जहर भी उचित मात्रा में मिलकर उत्तम औषध का काम कर देता है और मात्रा के अतिरिक्त होने से उत्तम दवा भी जहर बन जाती है। इस तथ्य को प्रमाणित करनेवालो अनेक घटनाएं हमे देखने को भी मिलती है। एक रोगी को दवा दी गई पर वह ऊंचे पावर की होने से उसकी जबान बन्द हो गई, किसी एक के दिमाग में असन्तुलन पैदा हो गया। शिक्षा, नीति आदि के ग्रन्थों में भी स्यादवाद की शैली को देखा जा
सकता है। एक छात्र-क्या राजनीति में भी स्यादवाद कोई प्रभावी भूमिका प्रस्तुत कर
सकता है ? अध्यापक-आज हम विश्व मंच पर देख रहे हैं, राजनीति में अनेक प्रकार की
विचारधाराएं पल्लवित हो रही हैं। कहीं समाजवाद है तो कहीं पंजीवाद और कहीं एकतन्त्र है तो कहीं लोकतन्त्र पर आपस मे कहीं संघर्ष उत्पन्न नहीं होता । राजनीति में सह-अस्तित्व (को-एग्जिस्टेन्स) के सिद्धान्त को मान्यता मिल गई है। इस नीति के कारण ही तो राष्ट्रसंघ में विभिन्न विचारधाराओं वाले राष्ट्रों का प्रतिनिधित्व हो रहा है। अगर सह अस्तित्व नहीं होता तो एक दूसरे के विपरीत विचारधाराओं के प्रतिनिधि एक साथ नहीं रह सकते । फिर एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अपनी विचारधारा को लादने की
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