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स्याद्वाद
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दूसरों के कथन की अपेक्षा को अगर स्वीकार करो तो तुम सब सही हो। अब उनको अपने अधूरे ज्ञान पर हंसी आई और व्यर्थ विवाद
में उलझने पर अफसोस भी हुआ। एक छात्र--सर ! फिर तो समग्रता से हम किसी विषय या वस्तु का वर्णन
कर भी नहीं सकते। क्योंकि हमारे ज्ञान व अभिव्यक्ति दोनों की
तीमा है। अध्यापक-इसी का तो समाधान स्याद्वाद है। हर पदार्थ में है और नहीं
दोनों तरह के अनन्त धर्म पाये जाते हैं। अनन्त पर्यायें उसमें विद्यमान हैं जैसे—यह वस्त्र रेशम का है सूत का नहीं, २.ह वस्त्र पीले रंग का है लाल रंग का नहीं, स्वदेशी मील का बना है विदेश का नहीं, सोहन का है मोहन का नहीं, ओढने के लिए है पहनने के लिए नहीं, सर्दी में काम का है गर्मी में नहीं आदि-आदि। इस तरह की अनन्त अवस्थाएं हर पदार्थ में हैं। स्याद् शब्द के द्वारा हम एक अपेक्षा को मुख्य मानकर दूसरी को गौण कर देते हैं, दूसरे समय में किसी और विशेषता को मुख्य करके पहली बात को गौण कर देते हैं। स्यादवाद वस्तु के किसी भी धर्म की उपेक्षा नहीं करता पर
अपेक्षा को जोड़कर उसका प्रतिपादन करता है । एक छात्र-एक ही पदार्थ है भी और नहीं भी, ऐसा कहने से क्या पदार्थ
__ में विरोध उत्पन्न नहीं होगा! अध्यापक-स्यादवाद विरोधी तत्त्वों में भी अविरोध को खोजता है फिर
विरोध उत्पन्न होने की बात तो दूर है। एक व्यक्ति कहता है-दूध अच्छा है दूसरा कहता है-दूध अच्छा नहीं है। बोलने वालों की भावना व अपेक्षा को अगर नहीं समझा जाये तो हमें प्रत्यक्ष विरोध नजर आयेगा, अन्यथा कोई विरोध नहीं है। दूध अच्छा है उनके लिए, जिनकी हाजमाशक्ति ठीक है, दूध अच्छा नहीं है उनके लिए, जिनकी हाजमा शक्ति कमजोर है। इन दोनों के पीछे जुड़ी हुई अपेक्षाओं को
समझते ही हमारी दृष्टि का विरोध स्वतः मिट जायेगा। एक छात्र-क्या स्याद्वाद संशय उत्पन्न नहीं करता, जब हम कहते हैं, यह
पदार्थ है भी और नहीं भी ? अध्यापक-संशय के लिए इसमें तनिक भी अवकाश नहीं। क्योंकि जहाँ
संशय है वहां निर्णायकता नहीं है। गाय है या गधा इस प्रकार का ज्ञान संशय कहलाता है। जबकि स्यादवाद तो स्पष्ट रूप से कहता है अमुक पदार्थ अमुक अपेक्षा से है, अमुक अक्षा से नहीं। एक ही
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