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बात-बात में बोध
नरुण - ऐसा अगर है तो फिर इस सम्बन्ध का अन्त भी नहीं हो सकेगा ? अमरनाथ - ठीक है, अनादि का कभी अन्त नहीं होता । पर एक बात समझने की है कि यह सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि है, व्यक्ति रूप से हर कर्म सम्बन्ध की आदि भी है, अन्त भी है। जैसे- एक समय कोई कम बन्धा, वह निश्चित अवधि के बाद नष्ट हो जाता है । कोई भी संबंध स्थायी नहीं है । तपस्या व साधना के द्वारा आत्मा कर्म से उसी तरह मुक्त हो जाती है जिस तरह कोल्हू आदि के द्वारा तेल खल रहित, आग पर तपाने से सोना खाद रहित होता है ।
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तरुण - पिताजी ! इस कर्मवाद को मानने से फायदा क्या है ?
अमरनाथ - सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि कर्मवाद को समझने के बाद
व्यक्ति किसी दूसरे को अपना दुश्मन नहीं मानेगा । अमुक ने मेरा अनिष्ट कर दिया, यह नहीं सोचकर व्यक्ति अपनी आत्मा को ही स्वयं के अनिष्ट में कारणभूत मानेगा । व्यक्ति स्वयं को सत्पुरुषार्थं में लगाएगा क्योंकि वह जानता है कि वर्तमान प्रवृत्ति ही उसके भविष्य के निर्माण में सहायक बनेगी। फिर वह किसी दूसरे के आगे हाथ नहीं फैलायेगा । न निराश होकर हाथ पर हाथ घरकर बैठेगा । उसमें यह विश्वास जम जाएगा कि कोई दूसरा किसी को सुखी नहीं बना सकता, अपने शुभ कर्मों से ही व्यक्ति सुखी बनता है । फिर वह विपत्ति के समय अधीर नहीं होगा, कर्म का भोग मानकर उसे समता से सहन करेगा । उसमें वीरतापूर्वक हर परिस्थिति से जूझने की क्षमता का विकास होगा ।
अरुण - ऐसा कर्मवाद तो विश्वास करने योग्य है ।
अमरनाथ - मैं सोचता हूँ अब तो तुम दोनों की दृष्टि भी परिमार्जित हो गईं होगी। पहले तुम किशोर को अपना दुश्मन मान रहे थे, क्या अब भी मानते हो ?
- नहीं पिताजी! किशोर को तो मैं इस वेदना में निमित्त भर मानता हूँ। मूल कारण तो मेरे अपने किए हुए कर्म ही है। मैं उसे अपना दुश्मन नहीं मानता, न मुझे उससे कोई झगड़ा भी करना है ।
अरुण --- आपने कमवाद को विस्तार से समझाकर हमारे पर असीम उपकार किया है। हमारे सोचने का प्रकार आपने बदल दिया। आपके प्रति असीम कृतज्ञता ।
तरुण
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