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________________ १२२ बात-बात में बोध दोषी न ठहराएं । हमारे कृत कर्मों के कारण ही ऐसी स्थिति बनी है, हम स्वयं इसके जिम्मेवार हैं। जैसा पहले बताया गया, पुरुषार्थ के द्वारा कुछ कर्मों के फल को मन्द भी किया जा सकता है । हाथ पर हाथ धरकर बैठने से तो अच्छे कर्म के अच्छे फल से भी व्यक्ति वंचित रह सकता है। जैन दर्शन एकांगी नहीं है, वह कर्मवाद में विश्वास रखता हुआ भी कार्य सिद्धि में काल, स्वभाव, कर्म, पुरुषार्थ और नियति इन पांच तत्त्वों को योगभूत मानता है । ये पांचों तत्त्व भी कर्मवाद के पूरक के रूप में है । इनमें परस्पर कहीं विरोध नहीं है । - कौन-सा कर्म शुभ है, कौन-सा अशुभ इसकी पहचान का भी कोई तरीका है क्या ? अमरनाथ - बहुत सीधा-सा तरीका है इसका । हमारी प्रवृत्ति के तीन स्रोत है - मन, वचन और शरीर । इनकी सत्प्रवृत्ति से जिसका बन्ध होता है वह शुभ कर्म और उसका फल भी अच्छा होता है और इनकी असत्प्रवृत्ति से जिस का बन्ध होता है वह कर्म अशुभ और उसका फल भी बुरा होता है । तरुण अरुण – अमरनाथजी ! फिर तो हम कर्म से मुक्त हो ही नहीं सकेंगे। क्योंकि प्रवृत्ति तो जब तक देह अवस्था में रहेंगे तब तक शुभ या अशुभ कोई न कोई रूप में चलती ही रहेगी। जब तक प्रवृत्ति रहेगी तब तक कर्म का बन्धन होता रहेगा । और कर्म का बन्धन चालू रहेगा तब तक मुक्ति असंभव है । अमरनाथ - उचित है तुम्हारी आशंका किन्तु इसका भी समाधान है । तुमको पता होना चाहिये कर्म बन्धन का मूल कारण कषाययुक्त प्रवृत्ति है । साधना के द्वारा व्यक्ति की चेतना ऊर्ध्वमुखी बनती है । साधना करते-करते एक अवस्था ऐसी भी आती है जब कषाय पूरी तरह क्षीण हो जाता है, प्रवृत्ति वहाँ चालू रहती है किन्तु बन्धन बहुत हल्का होता है। जो होता है वह भी शुभ कर्म का होता है । जिस तरह सूखी मिट्टी का लड्डू दीवार पर फेंकते ही स्पर्श करके तत्काल गिर जाता है, दीवार के चिपकता नहीं। वैसे ही कषाय रहित आत्मा के कर्म का स्पर्श मात्र होता है वहाँ वह टिक नहीं सकता । पूर्व बन्धे 「 हुए कम उस समय बहुत तेजी से क्षीण होने लगते हैं। एक क्षण ऐसा भी आता है जब आत्मा सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर अपने चिन्मय स्वरुप को पा लेती है । अरुण - एक बात समझ में नहीं आयी कि कर्म जड़ पुद्गल है, रुपी / आकारवान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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