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तरुण
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बात-बात में बोध ७. सातवें गुण अगुरुलधुपन (न छोटा, न बड़ा) को रोकने वाला गोत्र कर्म कहलाता है। आठवें लब्धि व पराक्रम को रोकने वाला अन्तराय कर्म कहलाता है। इन आठ कर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चार धन-घाती कर्म कहलाते हैं।
वेदनीय. आयुष्य, नाम और गोत्र ये चार अघाती कम कहलाते हैं। अरुण-घनघाती कर्म-अघाती कर्म के भेद का आधार क्या है ? अमरनाथ-सभी कम आत्मा को विकृत बनाने वाले हैं। इनमें भी ज्ञाना
वरणीय आदि चार कर्मों को घनघाती कहा गया है। तीव्र पुरुषार्थ से ही इनका क्षय किया जा सकता है। ये चार कर्म एकान्त अशुभ होते हैं । वेदनीय आदि चार कर्म अघाती हैं । ये आत्मा के मूल गुणों के विघातक नहीं हैं। घनघाती कर्म नष्ट होने पर एक निश्चित कालावधि के बाद उसी जन्म में घाती कर्मों को निश्चित रूप से नष्ट होना ही पड़ता है। ये कर्म शुभ और अशुभ दोनों तरह के होते हैं । पिता श्री! आपके कथन से मैं जहाँ तक समझ पाया हूं कि कर्म परित्याज्य है, प्राणी को संसार में भटकानेवाले हैं, ऐसे में कुछ कर्मों को आपने शुभ बताया, यह विरोधी बात लगती है। आग चाहे बड़ी हो, चाहे छोटी चिनगारी के रूप में हो, दोनों का स्वभाव एक सरीखा होता है, सांप चाहे छोटा हो चाहे बड़ा, दोनों ही
जहरीले होते हैं। अमरनाथ-पाठ कर्मों में सिर्फ चार वेदनीय, नाम गोत्र और आयुष्य ही
शुभ अशुभ दोनों तरह के होते हैं। शुभ कहने का तात्पर्य है-जीव को अनुकूल परिणाम का मिलना । जैसे-साता वेदनीय कर्म के उदय से सुख की अनुभूति का होना, शुभ नाम के उदय से सुन्दर रूप, शरीर आदि का मिलना, उच्चगोत्र कम के द्वारा कुलीनता, ऐश्वर्य की प्राप्ति होना, शुभ आयुष्यकर्म से सुखद व लम्बी आयु का होना । कर्म शुभ होने पर भी वह बन्धन है, हेय है। पिंजरा चाहे लोहे का हो, चाहे सोने का एक पक्षी के लिए केद के समान है। शुभ कर्म व्यक्ति को अच्छा फल देने के कारण प्रिय लगता है, इसलिए उसे शुभ
कहा गया है, बाकी कर्म मात्र परित्याज्य है। तरुण-इन आठ कर्मों के बन्धन के पीछे भी कोई नियम काम करता है क्या? अमरनाथ-अवश्य ! अलग-अलग कर्मों के पीछे बन्धन के कारण भी अलग
अलग है। जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म बन्ध का कारण है-शान या ज्ञानी पुरुष की अवहेलना करना । दर्शनावरणीय कर्म बन्ध का
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