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________________ ११ कर्मवाद (अमरनाथ जी एक कुर्सी पर बैठे हैं, हाथ में जैन दर्शन का कोई ग्रन्थ है। उनका लड़का तरुण खटिया पर बैठा है। सिर पर पट्टी बंधी हुई है। एक खाली कुर्सी पास में पड़ी है। आलमारी में कुछ धार्मिक पुस्तकें पड़ी हुई है । एक मेज पर कुछ पत्र-पत्रिकाएँ पड़ी हैं।) तरुण-पिताजी ! एक एक दिन बड़ी कठिनाई से निकल रहा है और रातें पहाड़ ज्यों भारी लगती है। अमरनाथ-बेटा ! मैं जानता हूँ तुम्हारे सिर में टांके लगे हुए हैं। भयंकर पीड़ा से तुमको गुजरना पड़ रहा है । पर याद रखो, कोई भी कष्ट स्थायी नहीं होता। चार पांच दिन बाद तुम्हारे टांके खुल जाएंगे, फिर तुम आराम अनुभव करोगे। तरुण-पिताजी! यह शारीरिक पीड़ा तो नगण्य है, न मुझको इसकी चिन्ता भी है। पर एक दूसरी पीड़ा मुझे बेचैन कर रही है। अमरनाथ-ओ हो! तुमको चिन्ता हो रही है कि अध्ययन में अपने साथियों से मैं पीछे रह गया, अनेक साथी मेरे से आगे निकल गये। (एक क्षण बाद) क्यों, यही तो बात है ? तरुण-ऐसी कोई बात नहीं । अध्ययन की क्षति पूर्ति मैं स्वस्थ होते ही बहुत शीघ्र कर लूंगा। अध्यापकों व साथियों पर मुझे भरोसा है कि वे मेरे इस कार्य में हर संभव मदद करेंगे। अमरनाथ-अच्छा, अब ध्यान गया कि क्या कारण हो सकता है तुम्हारी कठिनाई का। कई दिन हो गये अपने साथियों से मिले तुमको। सच बता, ठीक ही तो कह रहा हूँ मैं १ (एक क्षण रुककर) मैं अभी तुम्हारे खास मित्र अरुण को फोन करके कह देता हूँ कि तरुण तुमको बेसब्री से याद कर रहा है। तरुण-पिताजी! मित्रों का नहीं मिलना भी कोई दुविधा नहीं है क्यों कि साक्षात मिलना भले न हो लेकिन फोन पर यदा-कदा उनसे बात हो ही जाती है और मेरा खास मित्र अरुण तो कल फोन पर आज आने के लिए बोल ही रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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