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बात-बात में बोध
कठिनाइयों की चर्चा पहले की जा चुकी है। एक कठिनाई और भी है, वह है-लोगों में पुरुषार्थ हीनता का पनपना। ईश्वर को मानने वाले यह सोचकर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाते हैं कि हमारे भाग्य में ईश्वर ने ऐसा ही लिखा है। हम क्या कर सकते हैं, इससे भिखारीपन को बढ़ावा मिलता है और पुरुषार्थ की भावना कमजोर
होती है। विकास-पिताजी ! भगवद् गीता में हमने पढ़ा है कि जब-जब अधर्म की वृद्धि
होती है और धर्म का नाश होता है तब-तब भगवान पापियों का नाश करने और धर्म को पुनः स्थापित करने कोई न कोई रूप में अवतार
लेते हैं, क्या यह सही बात है ? जवाहर-भगवान जो इच्छा, मोह, माया व अज्ञान से मुक्त हैं, कभी अवतार
नहीं लेते। दोषयुक्त आत्मा ही पुनः संसार में आती है। तपस्या व साधना के द्वारा संसारी आत्मा सभी दोषों से मुक्त होने पर अपने चिन्मय स्वरूप को पा लेती है और दुनिया उसे ईश्वर के नाम से पुकारती है। ईश्वर के अवतार लेने की बात अगर सही होती तो इस घोर कलिकाल में अब तक ईश्वर को अवतार ले लेना चाहिए था।
परन्तु ईश्वर के अवतार लेने की बात भ्रान्ति भरी है। अनुपम-तो क्या जैन धर्म अनीश्वरवादी है ? जवाहर-नहीं, नहीं, ऐसा कहना नासमझी की बात है। जैन धर्म परम ईश्वर
वादी है। हां, वह ईश्वरकर्तृत्ववादी नहीं है । जिस रूप में अन्य धर्मदर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं उस रूप में वह नहीं मानता। जैन धर्म के अनुसार हर आत्मा में ईश्वर बनने की क्षमता है। कर्मों का आवरण हटते ही आत्मा अपने परम स्वरूप को पा लेती है । इसके बाद वह जन्म मरण से मुक्त हो जाती है। पुनः संसार में उसे आना नहीं पड़ता । वह अनन्त शक्ति और परम आनन्द से सम्पन्न होती है। दुनिया के प्रपंच से वह सदा दूर रहती है। ऐसी आत्मा को परमात्मा, परमेश्वर, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त आदि नामों से पुकारा जाता है।
इस तरह की आत्माएँ अनन्त हो चुकी हैं। विकास-तो क्या हम भी ईश्वर बन सकते हैं ? जवाहर-अवश्य बन सकते हैं बशर्ते कि हमारी आत्मा पर आया हुआ कर्मों
का सघ्न आवरण दूर हट जाये, अनन्त गुण व अनन्त शक्तियाँ प्रकट हो जाये। एक कवि ने लिखा-“बीज बीज ही नहीं, बीज में तरुवर भी हैं ; मनुज, मनुज ही नहीं, मनुज में ईश्वर भी है। हर पत्थर में
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