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________________ १०६ इसका नाश भी करने वाला है। इसका ढांचा बदलता रहता है । नये का निर्माण, पुराने का नाश स्वभाव से ही होता है। तरह का निर्माण और विनाश नहीं करता है । ईश्वर किसी अनुपम -- सर, बात गले नहीं उतरी। एक घड़ा भी कुम्भकार के बनाए बिना नहीं बनता तो इतना विचित्र संसार जिसमें कहीं पहाड़, कहीं नदियां व समन्दर हैं, बिना बुद्धिमान पुरुष के कैसे बन सकता है और ईश्वर से अधिक कौन बुद्धिमान कर्ता हो सकता है ? जवाहर --- मेरा एक छोटा-सा प्रश्न तुमसे भी है । कोई भी चीज यदि बिना किसी के बनाए नहीं बन सकती तो जगत् को बनाने वाले ईश्वर को किसने बनाया ? अनुपम - पर उसे तो बनाने की जरूरत भी नहीं, वह तो स्वयंभू है । जवाहर — अगर ईश्वर स्वयंभू है तो फिर इस संसार को स्वयंभू मानने में क्या दोष है । एक क्षण के लिए ईश्वर के द्वारा जगत्-रचना मान ली जाए तो मैं कहूंगा ईश्वर ने इस संसार को बनाकर बहुत बड़ी भूल की । अनेकानेक हत्यारे, व्यभिचारी, कसाई, चोर, डाकू व ठग जहां-तहां स्वच्छन्द घूमते हैं ! क्या इस संसार को देखकर ईश्वर की सर्वज्ञता और अनन्त शक्तिमत्ता पर हंसी नहीं आएगी ? दिखने वाली सब चीजें किसी की बनाई हुई है, यह कोई नियम नहीं बन सकता । बरसात की मौसम में धरती पर जगह-जगह अंकुर फूट पड़ते हैं, क्या कोई व्यक्ति उनको उगाता है ? अनुपम - वे तो स्वतः निष्पन्न होते हैं । जवाहर — इसी प्रकार यह बात भी सिद्ध हो गई कि संसार किसी का बनाया हुआ नहीं है, न कोई इसका नाश करने वाला भी है । यह स्वभाव से ही बनता और बिगड़ता है । अनुपम - पर कोई परम सत्ता तो होनी चाहिए जो सबके कर्मों का लेखा-जोखा रखे और न्याय व्यवस्था को बनाए रखे । ऐसा मान लिया जाए तो क्या कठिनाई है ? जवाहर - वह परमसत्ता हमारे भीतर ही विद्यमान है । बोया हुआ बीज जिस तरह समय पर फल देता है उसी तरह किए हुए कर्म भी काल परिपाक से स्वतः ही तदनुरूप फल देते हैं । अगर ईश्वर न्याय व्यवस्था का संचालक होता तो आज संसार में घोर अव्यवस्था नहीं फैलती । कई बार देखते हैं, अनीति पर चलने वाले गुलछरें उड़ाते हैं और नीति पर चलने वाले दण्डित हो जाते हैं । ईश्वर को परमसत्ता मानने में उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003142
Book TitleBat Bat me Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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