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________________ समन्वय की ओर परिवर्तित, फिर भी अपरिवर्तित जैन धर्म का दष्टिकोण मूलतः समन्वयवादी रहा है। जैन-दर्शन की स्यादवाद प्रणाली यही संकेत करती है। जैन दर्शन प्रत्येक पदार्थ को अनन्त धर्मों-स्वभावों से युक्त मानता है। उन स्वभावों में अनेक ऐसे भी हैं, जो साधारण दृष्टि से परस्पर सर्वथा विपरीत प्रतीत होते हैं। उनका सहावस्थान अन्य अनेक दर्शनिकों की दष्टि में असम्भव है, परन्तु स्याद्वादी के लिए वह कोई असम्भव तो है ही नहीं, अपितु अनिवार्य है । वस्तु में कौन-कौन से स्वभाव होने चाहिए, यह निर्णय देने का किसी को अधिकार नहीं है, इसके विपरीत वस्तु में कौन-कौन से स्वभाव हैं, यही सब सत्य-गवेषकों के लिए अन्वेषणीय होता है। उस अन्वेषण में यदि विरोधी धर्मों का सहावस्थान प्राप्त होता है, तो फिर उस वस्तु-सत्य को इनकार करने वाले हम होते कौन हैं ? अपनी जिज्ञासा का उत्तर देने के लिए वस्तु-स्वभाव को उलटने का प्रयास करने के स्थान पर अपने विचार-प्रकार का ही पुननिरीक्षण करना आवश्यक है, जिससे वस्तु-सत्य के साथ उसका विरोध न रहे। उदाहरण के लिए हम वस्तु के नित्यत्व और अनित्यत्व स्वभाव पर ही विचार करें। पहली दृष्टि में यह बात जंचती-सी लगेगी कि जो वस्तु नित्य होती है, वह अनित्य नहीं हो सकती और जो अनित्य होती है, वह नित्य नहीं हो सकती। परन्तु जब इसे वस्तु-विश्लेषण के प्रकाश में देखा जाता है, तब लगता है कि वस्तु का अन्तरंग नित्य होता है और बहिरंग अनित्य । कल्पना कीजिये, किसी व्यक्ति के पास सोने का एक बिस्कुट है । वह उसका कण्ठहार बनवाता है । कालान्तर में उसी कण्ठहार से कंकण और फिर उसी स्वर्ण से अंगूठियां बनवाता है । हम देखते हैं कि हर बार वस्तु के आकार में परिवर्तन आता है, परन्तु उसी के साथ यह भी देखते हैं कि हर बार वह स्वर्ण ही रहता है । इससे सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वस्तु में कुछ अपरिवर्तनशील होता है, उसे हम वस्तु का अन्तरंग कह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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