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वस्तु, अनुभूति और अभिव्यक्ति ६६ साथ में सम्भव नहीं है; अत: उन्हें विभिन्न अपेक्षाओं की दृष्टि से विभक्त कर दिया जाना आवश्यक हो जाता है। इस विभक्तीकरण को ही विभज्यवाद कहा जाता है। इसके द्वारा हम अभीष्ट का प्रतिपादन कर अपने अभिप्राय दूसरों तक पहुंचा पाते हैं । अभिव्यक्ति की इस प्रणाली का दूसरा नाम 'स्याद्वाद' भी है। वह इसलिए कि अनेक अपेक्षाओं में से वर्तमान में हम किसी एक अपेक्षा को ही चुन सकते हैं, शेष सब गौण होकर कालान्तर के लिए रह जाती हैं। उन सभी गौण अपेक्षाओं तथा उनके द्वारा प्रतिपादित होने वाले धर्मों के अस्तित्व की स्वीकृति की सूचना के लिए प्रतीक रूप में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाता है। उसे इस प्रकार भी कहा जाता है कि 'स्यात्' शब्द कथ्यमान धर्म के अतिरिक्त शेष सब धर्मों का प्रतिनिधित्व करता है। स्याद्वाद की इस वाक्य-प्रणाली को दर्शन शास्त्र में 'सकलादेश' या प्रमाण-वाक्य कहा जाता है।
बहुत बार 'स्यात् शब्द का प्रयोग किये बिना भी वस्तु के किसी धर्म-विशेष का प्रतिपादन किया जाता है, परन्तु वहां भी कथन करने वाले के विचारों में कथ्यमान धर्म के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मों के प्रति निराकरण की भावना नहीं आनी चाहिए। शेष धर्मों के लिए प्रतिनिधि शब्द 'स्यात्' का वाक्य में प्रयोग न करने पर भी अभिप्राय में तो वह रहना ही चाहिए। प्रतिनिधि-शब्द रहित साधारण रूप से बोले गये वाक्य को 'विकलादेश' अथवा 'नयवाक्य' कहा जाता है । प्रमाण वाक्य में वस्तु के एक कथ्यमान धर्म की मुख्य रूप से तथा शेष सभी धर्मों का 'स्यात्' के प्रतिनिधित्व में गौण रूप से कथन किया जाता है; अतः वह सम्पूर्ण वस्तु को विषय बनाता है । नयवाक्य में वस्तु के किसी एक धर्म को ही विषय बनाया जाता है। शेष धर्मों का न तो किसी प्रतिनिधि शब्द द्वारा समर्थन किया जाता है और न ही किसी निवारक शब्द द्वारा निषेध ही । केवल कथ्यमान को कहकर शेष के लिए तटस्थ मौन ग्रहण कर लिया जाता है।
सबके प्रति न्याय प्रमाण-वाक्य का प्रयोग किया जाए, चाहे नयवाक्य का, दोनों ही स्थितियों में उद्देश्य यही होता है कि वस्तु-विषयक हमारी अनुमति को भाषा द्वारा ठीक अभिव्यक्ति मिले और उससे हमारे अभिप्राय को श्रोता ठीक ढंग से समझ पाये। प्रतिपाद्य के प्रति न्याय तभी सम्भव है, जबकि प्रतिपादक अपने आग्रह और एकान्त से मुक्त होकर यथावस्थित कथन करे। अयथार्थ कथन वैचारिक हिंसा है और यथार्थ कथन अहिंसा । भगवान् महावीर ने 'न या सियावायं
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