SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ firष्ठाशील श्रावक : श्री बिहारीलालजी जैन २०६ नाते पारस्परिक परिहासों के भी उसमें कई संस्मरण हैं । वहां प्रदत्त एक संस्मरण के अनुसार मुनि नथमलजी ( युवाचार्यश्री) ने एक बार मेरे नाम का परिहास करते हुए कहा - " मैं किसी 'बुद्ध' की बात नहीं मानता।" इसके उत्तर में मैंने भी उनके नाम का परिहास करते हुए कहा - " इस विषय में मैं 'ऐरे गैरे नत्थू खैरे' के कथन कोई महत्त्व नहीं देता ।" बिहारीलालजी को उक्त परिहास बहुत पसंद आया, वे कई बार बातचीत के सिलसिले में उसे मेरे सम्मुख दुहरा चुके थे। इतना ही नहीं, कई बार तो अपनी बात की ओर विशेष ध्यान आकर्षित करने के लिए वे स्वयं भी उसका प्रयोग कर लेते। वे कहते - “इसे 'ऐरे गैरे नत्थू खैरे' की बात मत समझ लेना ।" और फिर जोर से ठहाका लगाकर हंस पड़ते । श्लोक क्या है ? मित्र परिषद् की स्मारिका के मेरे पूर्वोक्त लेख में एक यह संस्मरण भी है कि मुनि नथमलजी जब पहले-पहल अग्रणी रूप में विहरणकर वापस आचार्यश्री के पास आए तब युवकत्व और नये दायित्व की लालिमा उनकी आकृति पर छाई हुई थी । मैंने उसी स्थिति को व्यक्त करने वाले एक संस्कृत व्यंग्यकार के श्लोक का पद्यांश कहते हुए उनसे सुखपृच्छा की । युवाचार्य बनने से दो-चार दिन पूर्व उन्होंने मुझे उस बात का स्मरण करवाया था और हम दोनों एक साथ हंस पड़े थे । उपर्युक्त संस्मरण को पढ़कर अनेक व्यक्तियों ने मुझसे पूछा था कि वह श्लोक क्या था ? परन्तु उसे बतलाने का अब कोई औचित्य नहीं था अतः मैंने उन सबको टाल दिया । एक दिन बिहारीलालजी ने भी पूछ लिया कि स्मारिका के लेख में आपने श्लोक का उल्लेख तो किया है पर न वह श्लोक दिया और न उसका भावार्थं ही । पढ़ने वाले को तब कैसे पता लगे कि आपने क्या व्यंग्य किया था और फिर आप लोग उसे याद करके क्यों हंसे थे ? मैंने कहा- वह पद्यांश उसी समय के लिए उपयुक्त था। मैंने उसे अपने सहपाठी मुनि नथमलजी के लिए कहा था, वर्तमान के युवाचार्य महाप्रज्ञ के लिए नहीं । मेरा वह बनावटी तर्क उनको समाहित नहीं कर पाया। उन्होंने तत्काल कहा - तो फिर 'ऐरा गैरा नत्थू खैरा' वाला कथन आपने क्यों स्पष्ट कर दिया ? वह भी तो आज के महाप्रज्ञ पर लागू नहीं होता। साफ बात है आप दोनों मित्रों ने चुपके-चुपके ही लड्डू फोड़ लिये और खा लिये । हमें तो केवल दिखाकर चिढ़ाया ही, परोसा तो नहीं । मेरे पास वस्तुतः उनके कथन का प्रतिवाद करने के लिए कोई स्पष्ट उत्तर नहीं था, फिर भी मैंने कहा - "आपका तो युवाचार्य श्री से भी गहरा सम्बन्ध है, फिर उस श्लोक के विषय में उन्हें ही क्यों नहीं पूछ लेते ?” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy