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२०८ चिन्तन के क्षितिज पर
संस्कारदान
कलकत्ता में एक दिन बिहारीलालजी ने मुझे कहा - " आपको कलकत्ता आंए कई महीने हो गए, आप अभी तक एक बार भी मेरे मकान पर नहीं पधारे। मैं चाहता हूँ, आप घर पर पधारें और कुछ समय लगाकर सभी पारिवारिकों से परिचित हों ।" मैंने उनके कथन को स्वीकार किया और एक दिन वहां गया। आसपास के अन्य श्रावक तथा बिहारीलालजी के घर की गोचरी की । उनके घर पर कुछ देर ठहर कर प्रायः सभी पारिवारिकजनों से परिचय किया तथा धार्मिक प्रेरणा दी। मैंने पाया -- बिहारीलालजी ने अपने पूरे परिवार को धार्मिक संस्कारों से अनुप्राणित करने का अच्छा प्रयास किया है ।
लाउडस्पीकर
बिहारीलालजी की आवाज काफी बुलंद थी । वे साधारण रूप में बोलते तो भाषण देते हुए-से लगते और भाषण देते तब बिना लाउडस्पीकर के भी लाउडस्पीकर में बोलते हुए से लगते । मैं कई बार उन्हें कहा करता था कि प्रकृति ने आपके कंठों में ही लाउडस्पीकर फिट कर दिया है, अतः बाहर वाले लाउडस्पीकर की अपेक्षा ही नहीं रहती । वे कभी तो मेरी बात सुनकर केवल हंस ही देते और कभी-कभी मजाक में यों भी कह देते कि आपकी बात तो धीरे से कही हुई भी लोग सुन लेते हैं, पर मेरे जैसे को तो जोर से बोलकर ही अपनी बात सुनानी पड़ती है। और फिर अपने कथन की समाप्ति पर वे जोर से ठहाका लगाकर हंस पड़ते ।
एक बार मुनि दिनकरजी और मैं पास-पास में बैठे थे कि बिहारीलालजी आ गए । कमरे में प्रवेश करते ही उन्होंने अपने स्वभावानुसार बड़े जोर से 'मत्थेण दामि' कहा। मैंने कहा - "हम दोनों की ही श्रवण शक्ति ठीक है, अतः धीमे बोलने से भी काम चल सकता है।” उन्होंने चट से कहा - "आप ही तो कहते हैं कि प्रकृति ने मेरे कंठों में लाउडस्पीकर लगा रखा है, तो बतलाइये, अब मैं उसको निकालकर बाहर कैसे रख सकता हूं?" उनके इस कथन ने उपस्थित सभी व्यक्तियों के मुख पर स्मित रेखाएं खींच दी | मैंने अनुभव किया - वे प्रत्युत्पन्नमति से उत्तर देने में भी बड़े निपुण हैं ।
ऐरे गैरे...
राजलदेसर मर्यादा- महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री द्वारा मुनि नथमलजी को महाप्रज्ञ नाम से युवाचार्य पद पर नियुक्त किया गया । उक्त कार्य के उपलक्ष में मित्र-परिषद् द्वारा प्रतिवर्ष निकाली जाने वाली स्मारिका का विशेष अंक निकाला गया। उसमें मेरा एक संस्मरणात्मक लेख छपा । सहपाठी और समवयस्क होने के
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