________________
उस समय के मुनि नथमल : आज के युवाचार्य महाप्रज्ञ १७७ की सेवा में था। आचार्यश्री ने अपने 'पृठटे' से एक कवितापत्र निकाला और मुझे दिया। मैंने मुनि नथमलजी को वह दिखलाया तो उन्होंने भी उसकी मांग की। दूसरा पत्र उपलब्ध नहीं था, अत: नया लिखवाकर उन्हें दिया गया।
सं० १९८६ के सरदारशहर चतुर्मास में दीक्षाएं हुईं तब जो वस्त्र आया, उसमें से एक कंबल को अलग रखते हुए आचार्यश्री ने कहा-"यह नत्थू-बुद्धू को देना है।" किसी मुनि के द्वारा हमें उक्त सूचना तो मिली ही, साथ ही यह भी पता चला कि उस कंबल के एक भाग में कुछ काले धब्बे हैं । मध्याह्नकालीन भोजन के पश्चात् कालूगणी ने कंबल के दो टुकड़े किए और हमें देने लगे तब हम दोनों ने ही बिना धब्बे वाले टुकड़े की मांग की। आचार्यश्री ने हमें समझाने का प्रयास किया कि धोने पर ये धब्बे मिट जायेंगे, परन्तु धब्बे वाला भाग लेने के लिए हम दोनों में से कोई भी उद्यत नहीं था। आखिर आचार्यश्री ने दोनों भागों को अपनी गोद में दबाया और वस्त्र से ढक दिया । केवल दो छोर ऊपर रखकर हमसे कहा कि एकएक छोर पकड़ लो। हम दोनों ठिठके तो सही, परन्तु फिर एक-एक छोर पकड़ लिया। धब्बों वाला भाग मुनि नथमलजी को मिला। वे थोड़े उदास हुए, परन्तु जब दोनों भाग घुलकर पुनः हमारे पास आये तब हम पहचान ही नहीं पाये कि धब्बों वाला भाग कौन-सा था !
मुनि तुलसी अर्थ करते सं० १९८६ में हम दोनों अभिधान चिंतामणि कोश कंठस्थ कर रहे थे। आचार्यश्री ने फरमाया-मध्याह्न में प्रतिदिन एक श्लोक सिंदूर प्रकर (सूक्ति मुक्तावलि) का भी याद किया करो। हम वैसा ही करने लगे। कुछ श्लोक कंठस्थ हो जाने के पश्चात् हमें आदेश हुआ कि सायं प्रतिक्रमण के पश्चात् तुम दोनों श्लोकों का गान किया करो और तुलसी अर्थ किया करेगा। बाल्यावस्था के कारण उस समय हमारा स्वर महीन और मधुर था। आचार्यश्री के सम्मुख खड़े होकर हम दोनों उपस्थित जन-समूह में प्रतिदिन चार श्लोकों का गान करते और हमारे अध्यापक मुनि तुलसी उनका अर्थ किया करते।
एक शिकायत मुनि तुलसी हमें काफी कड़े अनुशासन में रखते थे। इधर-उधर घूमने की छूट तो देते ही नहीं थे, परस्पर बात भी नहीं करने देते थे। हम दोनों ने कालूगणी के पास शिकायत करने का निर्णय किया। रात्रि में जब आचार्यश्री सोने की तैयारी कर रहे थे तब हम गये और पास जाकर वन्दन किया। आचार्यश्री ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए पूछा--"बोलो, क्यों आये हो ?'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org