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________________ १७० चिन्तन के क्षितिज पर उद्भूत रहा है, जो श्रीफल की तरह ऊपर से शुष्क या कठोर लगता है परन्तु भीतर से मधुर और शक्तिदायक गिरी लिये हुए होता है । वे अपने छात्रों को कभी विशेष उपालम्भ नहीं दिया करते थे । डांट-डपट करते रहने में भी उन्हें कोई विश्वास नहीं था, फिर भी न जाने कौन-सा गुरुत्वाकर्षण था कि कोई भी शैक्ष उनके नियंत्रण से बाहर नहीं जा सकता था । चर्या से लेकर अध्ययन तक का प्रत्येक कार्य उनकी अनुज्ञा से ही होता था । वे अपने विद्यार्थी साधुओं के खान-पान, सोने-बैठने से लेकर छोटे से छोटे कार्य को भी सुव्यवस्थित रखने की चिन्ता रखते थे । विद्यार्थी साधु भी उन्हें केवल अपना अध्यापक ही नहीं, किन्तु संरक्षक, माता-पिता तथा सब कुछ मानते थे । शैक्ष साधुओं को कहीं इधर-उधर न भटकने देना, एक के पश्चात् एक काम में उनका मन लगाये रखना, अपनी संयतवृत्तियों के प्रत्यक्ष उदाहरण से उनकी वृत्तियों को संयतता की ओर प्रेरित करते रहना, इन सबको वे अध्ययन - कार्य का ही अंग मानते रहे हैं । अपना ही काम है आचार्यश्री ने अध्यापन कार्य को परोपकार की दृष्टि से नहीं, किन्तु कर्त्तव्य की दृष्टि से किया है । जब वे स्वयं छात्र थे और निरन्तर अध्ययनरत रहा करते थे, तब भी अपने अध्ययन-कार्य में जैसी उनकी तत्परता थी, वैसी ही शैक्ष साधुओं के अध्यापन कार्य में भी थी। उस कार्य को भी वे सदा अपना ही कार्य समझकर किया करते थे। दूसरों को अपनाने की और दूसरों को अपना स्वत्व सौंपने की उनमें भारी क्षमता थी । इसीलिए दूसरे भी उनको अपना मानते और निश्चिन्त भाव से अपना स्वत्व सौंप दिया करते थे । साधु समुदाय में विद्या का अधिक से अधिक प्रसार हो, यह आचार्यश्री कालूगणी का दृष्टिकोण था । उसी को अपना ध्येय बनाकर वे चलने लगे । मुनिश्री चम्पालालजी (भाईजी महाराज) कई बार उनको टोकते हुए कहते - "तू दूसरों-ही-दूसरों पर इतना समय लगाता है, अपनी भी कोई चिन्ता है तुझे ?" इसके उत्तर में वे कहते - " दूसरे कौन ? यह भी तो अपना ही काम है ।" उस समय के इस उदारतापूर्ण उत्तर के प्रकाश में जब हम वर्तमान को देखते हैं तो लगता है कि सचमुच वे उस समय अपना ही काम कर रहे थे । उस समय जिस प्रगति की नींव उन्होंने डाली थी, वही तो आज प्रतिफलित होकर सामने आ रही है । समस्त संघ की सामूहिक प्रगति आज आचार्यश्री की व्यक्तिगत प्रगति बन गयी है । कोमल भी, कठोर भी जिन विद्यार्थियों को उनके सान्निध्य में रहकर विद्यार्जन का सौभाग्य प्राप्त हुआ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003140
Book TitleChintan ke Kshitij Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBuddhmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1992
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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