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१६८ चिन्तन के क्षितिज पर
उन्होंने गद्य तथा पद्यमय दर्जनों ग्रंथ लिखे हैं। इन सब कार्यों को चिन्तन में लेकर हम उनकी व्यस्तता का अनुमान लगा सकते हैं। इतना होने पर भी जब उन्हें शैक्ष साधु-साध्वियों को अध्यापन कराते देखते हैं तो सहज ही मन में एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य उनके चारों ओर हैं तब वे इस साधारण कार्य में अपना समय क्यों लगाते हैं ? इसका उत्तर खोजने लगता हूं तब महात्मा गांधी के जीवन की एक घटना मेरे स्मृति-पटल पर उभर आती है।
सर्वोदय ला रहा हूं गांधीजी एक बार किसी प्रौढ़ महिला को वर्णमाला का अभ्यास करा रहे थे। आश्रम में देश के अनेक उच्चकोटि के नेता आये हुए थे। उन्हें गांधीजी से देश की विभिन्न समस्याओं पर विमर्श करना था तथा मार्ग-दर्शन लेना था। बड़ी व्याकुलता लिये वे सब बाहर बैठे हुए अपने निर्धारित समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। अनेक विदेशी भी महात्माजी से मिलने के लिए उत्कंठित हो रहे थे। पर महात्माजी सदा की भांति तल्लीनता के साथ उस महिला को 'क' और 'ख' का भेद समझा रहे थे। ____एक परिचित विदेशी ने झुंझलाकर गांधीजी से कहा--"बहुत लोग प्रतीक्षा में बैठे हैं। आपके भी महत्त्वपूर्ण कार्यों का चारों ओर ढेर लगा है। ऐसे समय में यह आप क्या कर रहे हैं ?" गांधीजी ने स्मित-भाव से उत्तर देते हुए कहा--"मैं सर्वोदय ला रहा हूं।"
ठीक यही स्थिति आचार्यश्री की भी है । वे विद्या को विकास का बीजमंत्र मानते हैं । इसीलिए अनेक कार्यों की व्यस्तता में भी वे उस बीज को सींचना कभी नहीं भूलते।
इस प्रश्न का एक दूसरा समाधान भी है । आचार्यश्री जब साधना क्षेत्र में प्रविष्ट हए और छात्र रूप में अपने अध्ययन में व्यस्त रहने लगे, तभी आचार्यश्री कालूगणी ने उनको हम बाल मुनियों के अध्यापन का कार्य भी सौंप दिया । अपने गुरु द्वारा सौंपे गये उस कार्य को आज की भरपूर व्यस्तताओं में भी वे यथावत् चला रहे हैं। स्वीकृत उत्तरदायित्व को इस सीमा तक निभाने वाले वे अद्वितीय व्यक्ति कहे जा सकते हैं।
अध्यापन-कौशल आचार्यश्री को अध्यापन कार्य में एक सहज कुशलता प्राप्त है । बहुत से व्यक्ति उस कुशलता को श्रमपूर्वक अर्जित करते हैं, परन्तु उनमें वह संस्कारजन्य है। अध्ययन-कार्य से अध्यापन-कार्य कहीं अधिक कठिन होता है। अध्ययन करने में स्वयं के लिए स्वयं को खपाना होता है, जबकि अध्यापन में पर के लिए अपने को
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