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१४० चिन्तन के क्षितिज पर
तोल-माप और रिश्वत आदि के विरुद्ध भी वातावरण तैयार करने का प्रयास किया है। हजारों व्यक्तियों को उपर्युक्त दुर्गुणों के विरुद्ध प्रतिज्ञा-बद्ध कर देना जहां आत्म-शुद्धि के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है वहां देश के लिए कोई कम महत्त्व का कार्य नहीं है।
प्रश्न-हम सबके लिए अहिंसा पालन की उपयुक्त अन्तिम सीमा क्या होनी चाहिए?
उत्तर--किसी का प्राण वियोजन न करना या किसी को कष्ट भी नहीं पहुंचाना, यह अहिंसा का स्थूल रूप है । सूक्ष्म रूप में तो दुष्प्रवृत्ति मात्र या विकार मात्र का भी उसमें वर्जन होता है। यही उसकी अन्तिम सीमा कही जा सकती है। किन्तु प्रश्न तब थोड़ा टेढ़ा हो जाता है। जबकि आप अपने लिए अहिंसा की उपयुक्त अन्तिम सीमा पूछते हैं । मैं आपके लिए या अन्य किसी के लिए इस विषय की कोई अन्तिम सीमा-रेखा खींच सकू—यह सम्भव नहीं है । न मेरा यह कर्तव्य ही हो सकता है कि मैं आपकी एतद् विषयक साधना की योग्यता को किसी प्रकार के मध्यम स्तर तक ही बढ़ने योग्य मानूं। इसलिए अन्तिम सीमा तो सबके लिए पूर्ण अहिंसा ही हो सकती है फिर भी जब तक उतने सामर्थ्य का कोई अपने में अभाव महसूस करे, तब तक के लिए वह अपने सामर्थ्य को तोलकर तत्प्रमाण सीमा का निर्धारण करके भी चल सकता है। परन्तु उसे अन्तिम सीमा मान लेने की भूल तो कभी नहीं करनी चाहिए। मैं किसी भी सीमा का निर्धारण करूं इससे तो यह कहीं अच्छा होगा कि वे ही स्वयं अपनी-अपनी सीमा का निर्धारण कर लें। मैं मानता हूं कि हर व्यक्ति का सामर्थ्य एक जैसा नहीं होता अतः उन सबके लिए एक सीमा भी नहीं हो सकती। फिर भी यदि आप उन सब व्यक्तियों के, जिन-जिन के लिए आपने यह प्रश्न उपस्थित किया है, अहिंसा-पालन के क्षेत्र में सामर्थ्य-विकास की अन्तिम सीमा बता सकेंगे तो उसी के आधार पर आपके लिए अहिंसा-पालन की भी उपयुक्त अन्तिम सीमा बतला सकूँगा।
प्रश्न-अहिंसा की दृष्टि से आततायी के प्रति क्या व्यवहार किया जाना चाहिए ?
उत्तर---आतंक फैलाने वाले तथा दारुण हिंसा करने वाले व्यक्तियों को आततायी कहते हैं । ऐसे व्यक्ति समाज के लिए बड़े खतरनाक गिने जाते हैं। न्यायालय उन्हें मृत्यु-दण्ड तक देता है। उससे आगे भी कुछ कर सकने की गुंजाइश होती तो शायद वह भी विधान-सम्मत ही माना जाता। 'नाततायी वधे दोषो' कहकर स्मृतिकार मनु ने भी आततायी के वध को निर्दोष ही घोषित किया है। किन्तु अहिंसा का दृष्टिकोण इससे भिन्न रहा है। सर्वत्र आत्मवत्ता की भावना में से अहिंसा का उद्भव हुआ है। अतः वहां किसी भी स्थिति में वध को उपयुक्त नहीं माना जा सकता। यहां तक कि सामाजिक न्याय जहां उसे उपयुक्त मानता
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