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अणबत आन्दोलन और नारी-समाज
अणुव्रत आन्दोलन आत्म-सुधार का आन्दोलन है। इसमें व्यक्ति छोटे-छोटे संकल्पों के माध्यम से अपनी वृत्तियों को कसता है । व्यक्ति यदि समाज से निरपेक्ष अकेला रहता, तो उसे अपनी वृत्तियों को कसने की विशेष आवश्यकता नहीं होती। जो थोड़ी-बहुत आवश्यकता होती, वह भी अपने हितार्थ ही होती। उसका प्रभाव किसी अन्य पर नहीं पड़ता। परन्तु वह सर्वथा समाज-निरपेक्ष हो नहीं सकता। हर क्षेत्र में उसे समाज से आदान-प्रदान करना होता है । इस प्रक्रिया में वह केवल 'स्व' को ही आगे रखकर नहीं चल सकता, उसे 'पर' के साथ संतुलन बिठाना पड़ता है । संतुलन बिठाने की इसी प्रक्रिया को यहां वृत्तियों का कसना कहा गया है। यह प्रवृत्ति स्वतः भी जागृत हो सकती है और दूसरों की प्रेरणा से भी। जब यह दृढ़ संकल्प का रूप धारण कर लेती है, तब व्रत बन जाती है। ___ भारतीय धर्म-शास्त्रों में व्रत के दो रूप प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। एक पूर्ण और दूसरा अपूर्ण । पूर्ण व्रतों को महाव्रत और अपूर्ण अर्थात् यथासाध्य व्रतों को अणुव्रत कहा गया है। अणुव्रत आन्दोलन का सम्बन्ध इन्हीं यथासाध्य व्रतों से है। इन्हीं व्रतों के आधार पर आचार्यश्री तुलसी ने मानव मात्र के चारित्रिक तथा नैतिक विकास के लिए प्रयास किया। आचार्यश्री राजस्थान में जन्मे तथा रहे हैं, अतः स्वभावतः ही उनका परिचय-क्षेत्र राजस्थान से प्रारम्भ हुआ। इस आन्दोलन का प्रथम प्रभाव भी राजस्थानियों पर ही हुआ। यह दूसरी बात है कि आचार्यश्री ने इस आन्दोलन के माध्यम से धीरे-धीरे अपना परिचय-क्षेत्र बढ़ाया और आज वे समग्र भारत के अपने बन चुके हैं। उनके माध्यम से आन्दोलन का प्रभाव क्षेत्र भी अखिल भारतीय तो बना ही है, परन्तु भारत से बाहर भी उसकी आवाज पहुंची है।
आन्दोलन का प्रारम्भ राजस्थान से हुआ है, अत: वहां की जनता को कितना आन्दोलित किया जा सका है, इसे देखकर ही आन्दोलन की सफलता या असफलता का अनुमान लगाया जा सकता है। इस कसौटी पर कसने से आन्दोलन की जहां अनेक सफलताएं नजर आयेंगी, वहां कुछ असफलताएं भी दिखाई देंगी। आन्दोलन
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