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लोक-संस्थान भावना
सम्पूर्ण विश्व, जो पुरुषाकृति है, का चिन्तन करना लोक भावना है। जड़ और चेतन का यह आवासस्थल है। मनुष्य, पशु, स्थावर, सूर्य, चन्द्र, नारक, देव और मुक्तात्मा (सिद्धि-स्थान)-ये सब लोक की सीमा के अन्तर्गत हैं। साधक लोक की विविधता का दर्शन कर और उसके हेतुओं का विचार कर अपने अन्त: स्थित चेतना (आत्मा) का ध्यान करे। यह सोचे-राग और द्वेष की उठने वाली तरंगों का यह परिणाम है। लोक-भावना का अभिप्राय है इस वैविध्य और वैचित्र्य का सम्यग् अवलोकन कर स्वयं को सतत तटस्थ बनाए रखना।
यह लोक विविधताओं की रंगभूमि है। इसमें अनेक संस्थान और अनेक परिणमन हैं। उन सब में एकत्व या समत्व की अनुभूति कर घृणा, अभिमान और हीन भावना पर विजय पायी जा सकती है। समत्व की साधना के लिए इस भावना के अभ्यास का बहुत महत्त्व है। बाहर से भीतर की ओर
भगवान् महावीर ने इसका उपाय बताते हुए कहा-एक कछुआ है। जब कोई कठिन स्थिति पैदा होती है, पक्षी उसे नोचने आते हैं, सियार आदि उसे खाने आते हैं, कोई असुरक्षा उत्पन्न हो जाती है, भय उत्पन्न होता है, तब तत्काल वह अपनी खाल में चला जाता है। प्रकृति ने उसे ऐसी खाल भी दी है जो उसके लिए ढाल का काम करती है। प्राचीन काल में जब तलवारों और भालों से युद्ध होता था, तब योद्धा अपने हाथ में ढाल रखते थे। वह भी कछुए की खाल से ही बनती थी। कछुआ अपनी खाल के भीतर जाने के बाद सब प्रकार से सुरक्षित बन जाता था। क्या हमारे पास भी ऐसी कोई ढाल है जिसमें पहुंचकर हम पापों से बच सकें ? हमारे मन में वासना उभरती है। हमारे ऊपर वासना का आक्रमण होता है, क्रोध का आक्रमण होता है, आवेश का आक्रमण होता है। क्या कोई उपाय है इन आक्रमणों से बचने का? हां, है उपाय । भगवान् ने कहा-जैसे कछुआ बाहरी आक्रमण से बचने के लिए अपनी ढाल में चला जाता है, वैसे ही तुम अध्यात्म में चले जाओ। भीतर चले जाओ, अन्दर प्रवेश कर लो, सुरक्षित हो जाओगे। जब तक मन बाहर भटकता है तब तक वासनाएं उभरती हैं, आवेश उभरते हैं और जो स्थितियां चिन्ता, भय और दु:ख उत्पन्न करने वाली हैं वे सारी उभरती हैं, उभर
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