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अन्यत्व भावना
स्वस्थ चिंतन का सूत्र है-अन्यत्व भावना की अनुप्रेक्षा। जो आज तक उपलब्ध नहीं हुआ था वह इससे उपलब्ध हो जाता है। सम्यग्-दर्शन का मूल है अन्यत्व भावना। 'मैं शरीर से भिन्न हूं और शरीर मुझसे भिन्न है'-यह अन्यत्व भावना है, अनुप्रेक्षा है। जैसे-जैसे अन्यत्व की भावना पुष्ट होती चली जाती है, वैसे-वैसे आत्मा का ज्ञान, आत्मा का प्रकाश हजारों-हजारों को फैलाता जाता है और मोह का अन्धकार विलीन होता चला जाता है। अन्यत्व की भावना के जागरण के साथ अनेक ग्रन्थियां खुल जाती हैं। शरीर को अपना मानकर जितने तनाव पैदा किये थे, जितनी ग्रन्थियों का पात हुआ था, वे सारे तनाव मिट जाते हैं, वे सारी ग्रन्थियां खुल जाती हैं। व्यक्ति तनावों और ग्रन्थियों से मुक्त हो जाता है।
शरीर में बीमारी हुई, आदमी रोने लग जाता है। शरीर को थोड़ा-सा कष्ट हुआ, आदमी दीन बन जाता है। कष्ट के कारण ऐसा नहीं होता। यह होता है ग्रन्थियों के कारण, संस्कार के कारण। हमारी देहाशक्ति इतनी पुष्ट है कि हमने मान लिया कि शरीर को कुछ भी कष्ट नहीं होना चाहिए। इस मान्यता के कारण थोड़ा-सा कष्ट भी असहनीय बन जाता है पर जिनकी अन्यत्व भावना जागृत हो जाती है, हजारों कष्टों के आने पर भी उनकी मधुर मुस्कान को कभी नहीं मिटाया जा सकता। उनके चेहरे पर कभी दीनता का भाव नहीं उभरता। वे कभी खिन्न नहीं बनते। वे बहुत शारीरिक वेदना के होने पर भी उसकी अवज्ञा कर देते हैं, उस ओर ध्यान ही नहीं देते। शरीर को कष्ट होता है इसलिए आदमी नहीं रोता। किन्तु मेरे शरीर को कष्ट नहीं होना चाहिए, यह मान्यता उसे रुलाती है। इसी मान्यता के कारण आदमी रोता है। जब अन्यत्व भावना पुष्ट हो जाती है तब मेरे शरीर को कष्ट नहीं होना चाहिए'-यह ग्रन्थि खुल जाती है, ग्रन्थि समाप्त हो जाती है। फिर कष्ट होता है तो वह द्रष्टा की भांति देखता है कि शरीर में कुछ हो रहा है। कुछ घटना घटित हो रही है। वह केवल द्रष्टा होता है, संवेदक नहीं।
एक व्यक्ति आया। वह ध्यान का अभ्यास कर रहा था। मैंने पूछा-'ध्यान का क्रम चल रहा है ?' उसने कहा- 'दर्द हो रहा था, इसलिए अभी बंद कर दिया है।' मैंने कहा-'जहां दर्द है, उसी पर ध्यान करो। उस
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