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________________ एकत्व भावना उपनिषद्द्वार कहते हैं- 'द्वितीयाद् वै भयम्' जब दूसरा होता है तब भय उत्पन्न होता है । जब दूसरा होता है तब कार्य में बाधा आती है, स्वतन्त्रता, खंडित हो जाती है। अकेले में व्यक्ति जो कुछ चाहे कर सकता है, किन्तु जब दूसरे के आने की आशंका होती है तब वह सावधान हो जाता है, मनचाहा कर नहीं सकता । इस प्रकार दूसरा होता है तब आशंका उत्पन्न होती है, भय होता है, संघर्ष होता है । इस पहलू को ध्यान में रखना है । अकेला होना अस्वाभाविक नहीं है, असामाजिक नहीं है । जो व्यक्ति समाज में रहता हुआ भी अपने आपको अकेला अनुभव करता है वह हजारों समस्याओं से बच जाता है। 1 -आप इन सारी स्थिति में अप्रमाद का सूत्र है - अकेलेपन की अनुभूति । सारे सम्पर्कों को तोड़ कर व्यक्ति व्यवहार में जी नहीं सकता। इन बातों से व्यवहार टूटेगा नहीं। इसमें और मधुरता आएगी। यदि वास्तव में अपने -: में अकेलेपन का अनुभव करेंगे तो अनेक कठिनाइयों से बच जाएंगे । न चिन्ता के शिकार होंगे और न दुःख के । दूसरों के व्यवहारों को देखकर उलझेंगे नहीं; दुःखी नहीं होंगे। मन शांत रहेगा और इस स्थिति में आप द्वारा किए गए व्यवहार दूसरों को मधुर लगेंगे । आपके मस्तिष्क में निरन्तर एक सूत्र कार्यरत रहेगा 'मैं अकेला हूं।' जब कोई भी समस्या सामने आएगी, आप इस सूत्र से समाहित हो जायेंगे । समस्या पीड़ित नहीं करेगी। जो समस्या सोलह आना लगती है, वह एक आना मात्र रह जाएगी। यदि अकेलेपन का आलंबन - सूत्र नहीं है तो छोटी समस्या भी बड़ी बन जाएगी। वह सुलझेगी नहीं । अप्रमाद की साधना व्यक्तिगत जीवन और व्यावहारिक जीवन-दोनों में लाभप्रद है । दोनों की समस्याओं का समाधान देने में यह सक्षम है । यह साधना समस्याओं को सुलझाती है और एक-एक चरण आगे बढ़ने में हमारी सहायक होती है। संपर्क से हम जुड़ते और पलायन कर जाते हैं, भाग जाते हैं। जुड़ना और भाग जाना-- दोनों बातें ठीक हैं। जुड़ जाना भी अच्छा है और भाग जाना भी अच्छा है। समुदाय में रहना भी अच्छा है और अकेले में रहना भी अच्छा है। एक बात कोई अच्छी नहीं होती क्योंकि हम व्यवहार का जीवन जी रहे हैं । हमारा स्तर है व्यवहार का। जहां शरीर है, जीवन है, वहां हमारी आवश्यकताएं भी हैं। हमें रोटी भी खानी है, कपड़ा भी है। ऐसी स्थिति में हम संपर्कों को तोड़ नहीं सकते। हमें सम्पर्कों का सहारा लेना होता है । किन्तु जहां हमें वास्तविकता के जगत् में जीना है, सत्य के जगत् में जीना है, वहां हमें अकेला ही जीना होगा, अकेला ही रहना होगा। इसके सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं है । Jain Education International ३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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