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________________ सहिष्णुता अनुप्रेक्षा २१५ सबसे बुजुर्ग व्यक्ति वृद्ध हो चला था। बोलने में असमर्थ था। उसने संकेत से कलम और पत्र मंगवाकर कांपते हाथों से उस पर लिखा-'सहनशीलता।' सहनशीलता क्षमा की निष्पत्ति है। इसमें बड़े और छोटे का प्रश्न नहीं उठता। बड़े छोटों को सहन करते हैं और छोटे बड़ों को सहन करते हैं। इस सहने में किसी के प्रति अहसान के भाव नहीं, आत्मधर्म की प्रेरणा होती है। जहां सहना पड़ता है या किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिए सहा जाता है, वह विवशता है। जो सब कुछ सह लेता है निर्ग्रन्थ कौन होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में 'आयारो' का एक सूक्त है-सीउसिणच्चाई से णिग्गंथे-निर्ग्रन्थ वह होता है जो शीत और उष्ण को सहन कर लेता है। शीत और उष्ण का अर्थ केवल सर्दी-गर्मी ही नहीं है। जो सब प्रकार की अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को सह लेता है, वह निर्ग्रन्थ शब्द की गरिमा को धारण कर सकता है। __सामान्यत: निर्ग्रन्थ उसे कहते हैं जो परिग्रह से मुक्त होता है। पर यहां परिग्रह बहुत नीचे धरातल पर रह जाता है। उससे आगे जो राग-द्वेष की ग्रंथियां हैं, कषाय का वलय है, उसे तोड़ने वाला साधक निर्ग्रन्थ बन सकता है। इस भूमिका तक पहुंचाने वाला कोई तत्त्व है तो वह है समता। समता और मैत्री एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। समता एक शक्ति है। इसे क्षमता सम्पन्न व्यक्ति ही संजोकर रख सकते हैं। अक्षम व्यक्ति समता-विहीन होते हैं। वे किसी भी परिस्थिति से प्रतिहत हो सकते हैं। उनमें सहनशीलता नहीं होती, इसलिए वे मैत्री के मंत्र की आराधना नहीं कर सकते। निर्ग्रन्थ के कई लक्षण हैं। अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अचौर्य और सत्य भी उनके लक्षण हैं। पर इन सबका समावेश समता में हो जाता है। जीवन में समता है तो ये सब गुण विकसित हो जाते हैं। समता के अभाव में इनकी अवस्थिति नहीं हो सकती। समता की सीमा का अतिक्रमण करते ही इन सबका लोप हो जाता है। यह निश्चिय की भूमिका है। ___ व्यवहार की भूमिका में समता का पर्याय है मैत्री। यह एक सापेक्ष सत्य है। किसी व्यक्ति के प्रति विरोध, अवहेलना, अनादर या आक्रोश का भाव जाग जाए, उससे क्षमा की याचना करना और अपने प्रति किसी दूसरे द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा देना मैत्री है। यह उन लोगों के लिए है जो व्यवहार के जगत् में जीते हैं। व्यवहार के धरातल से ऊपर उठे हुए व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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