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________________ २०० अमूर्त चिन्तन राष्ट्र-संघ जैसे संगठनों में जहां समाजवादी संगठन का प्रतिनिधित्व होता है तो वहां पूंजीवादी संगठन का भी प्रतिनिधित्व होता है। जहां लोकतंत्र प्रणाली का प्रतिनिधित्व है तो वहां एकतंत्र का भी प्रतिनिधित्व है। सह-अस्तित्व की घोषणा राजनीति के क्षेत्र में नई है, किंतु प्राकृतिक नियमों के आधार पर यह बहुत प्राचीन है। यह कोई नयी बात नहीं है। बनना और बिगड़ना, बनना और बिगड़ना-यह पुराना क्रम है। हमारे शरीर में खरबों कोशिकाएं हैं। प्रति सेकण्ड पांच करोड़ कोशिकायें नष्ट होती हैं और पांच करोड़ कोशिकाएं उत्पन्न होती हैं। यह सह-अस्तित्व बना रहता है। जनमना और मरना। पैदा होना और नष्ट होना। कोशिकायें नष्ट न हों तो शरीर मुर्दा बन जाता है। कोशिकायें पैदा न हों तो शरीर टूट जाता है। दोनों चालू रहते हैं तब शरीर टिकता है। जीना और मरना ये दोनों विरोधी हैं, किंतु दोनों साथ-साथ रहते हैं, साथ-साथ चलते हैं। जिस क्षण में आदमी जीता है, उसी क्षण में आदमी मरता है और जिस क्षण में आदमी मरता है, उसी क्षण में आदमी जीता है। जीवन और मरण की ये विरोधी घटनायें साथ-साथ चलती हैं। कोई उसमें कालक्रम नहीं है कि अमुक क्षण में आदमी जीता है और अमुक क्षण में आदमी मरता है। जीना और मरना साथ-साथ चलता है। जो जीने का क्षण है, वही मरने का क्षण है और जो मरने का क्षण है वही जीने का क्षण है। दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। परस्परोपग्रहो जीवानाम् ___यदि हम इस सहावस्थान के नियम को समझ लेते हैं तो फिर संघर्ष के लिए कोई अवकाश नहीं रहता। तात्पर्य सूत्र का एक महत्त्पूर्ण सूत्र है-'परस्परोपग्रहो जीवानाम्'-परस्पर में एक-दूसरे का सहारा-यह प्रकृति का नियम है, यह जीव सृष्टि का अटल नियम है। एक दूसरे का सहारा मिलता है, इसमें कोई विरोध नहीं है। विरोध इसलिए पनपा कि सह-अस्तित्व के नियम को भुला दिया गया। विरोधी युगल साथ रह सकते हैं-यह नियम जब आंखों से ओझल हो जाता है, तब विरोध पनपता है। व्यक्ति एक ही कोण से देख पाता है। समाजशास्त्रियों ने यह घोषणा की कि जीवन के लिए संघर्ष अनिवार्य है, क्योंकि उन्होंने विरोधी युगलों के सहावस्थान तथा प्रतिपक्ष के सिद्धांत को नहीं समझा। जिन्होंने सह-अस्तित्व और विरोधी युगलों के सिद्धांत को समझा उन्हें अनेकांत की दृष्टि का हार्द प्राप्त हुआ। उन्होंने शाश्वत घोषणा की कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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