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सह-अस्तित्व अनुप्रेक्षा
कह सकते । सब एक अपेक्षा से जुड़े हुए हैं । और उस अपेक्षा के आधार पर हम ये सारे विश्लेषण करते हैं और कहते हैं- यह गरम है, यह ठण्डा है । यह बुरा है, यह अच्छा है।
अग्नि को ठण्डा भी कहा जा सकता है और बर्फ को गरम भी कहा जा सकता है। ये जितने सापेक्ष धर्म हैं, उन्हें हम किसी एक दृष्टिकोण से नहीं देख सकते । महावीर ने कहा, 'सापेक्षता के बिना हम सत्य का प्रतिपादन नहीं कर सकते। जहां सापेक्षता से हम सत्य का प्रतिपादन करते हैं, उसका फलित होगा सह-अस्तित्व । '
सह-अस्तित्व और समन्वय
वर्तमान में राजनीति के मंच से सह-अस्तित्व की ध्वनि मुखर हुई है । संयुक्त राष्ट्रसंघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंच से सह-अस्तित्व की चर्चा सुनाई देती है । किन्तु यदि हम यह जानना चाहें कि इस सिद्धांत का प्रतिपादन सबसे पहले किसने किया तो भगवान् महावीर का नाम सबसे पहले स्मृति - पटल पर उभरेगा । सह-अस्तित्व का विस्तार के साथ यदि कहीं प्रतिपादन मिलता है तो वह स्याद्वाद में, अनेकांतवाद में, सापेक्षवाद में ।
सबसे अच्छा मार्ग है- सहन करना, समन्वय करना और सह-अस्तित्व की चेतना को विकसित करना ।
आदमी भिन्नता से कब तक लड़ेगा ? कब तक संघर्ष करता रहेगा ? लड़ाई का कभी कहीं अंत नहीं होता। अंत तब होता है जब मनुष्य जाति ही समाप्त हो जाती है। लड़ते-लड़ते सब समाप्त हो जायेंगे तब लड़ाई स्वतः बन्द हो जायेगी। किन्तु यह समस्या का समाधान नहीं है। यदि मनुष्य जाति को जीना है, जीवित रहना है तो उसे कोई विकल्प ढूंढना पड़ेगा, मार्ग निकालना होगा । वह विकल्प और मार्ग है-सह-अस्तित्व और समन्वय की चेतना का विकास। इसके विकास के द्वारा ही असहिष्णुता की भावना को मिटाया जा सकता है।
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पंडित नेहरू ने एक राष्ट्र और दूसरे राष्ट्र के बीच सह-अस्तित्व की बात पर बल दिया था। आज हम उस बात की चर्चा न करें। पर क्या पारिवारिक जीवन में सह-अस्तित्व आवश्यक नहीं है ? परिवार में सह-अस्तित्व अत्यन्त अपेक्षित है । तभी शांत सहवास रह सकता है, अन्यथा नहीं। शांत सहवास जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। साथ में रहना और प्रेमपूर्वक रहना बहुत बड़ी बात है। बहुत अधिक प्रेम हो और वे यदि कुछ काल तक साथ में रह जाएं तो प्रेम टूटते देरी नहीं लगती। दो को साथ में
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