________________
- प्रामाणिकता अनुप्रेक्षा
१८७
प्रामाणिकता का अर्थ है-अधिकृत का ग्रहण और अनधिकृत का प्रत्याख्यान। आकांक्षाशील मनुष्य इस मर्यादा को स्वीकार नहीं करता, इसलिए वह अप्रामाणिक हो जाता है।
___ अप्रामाणिकता अपने आप में चोरी है। वह वाणी की भी होती है. चिन्तन और कर्म की भी होती है। संस्कृत साहित्य में अप्रामाणिक व्यक्ति को दुरात्मा माना गया है। एक कवि ने लिखा है
मनस्येकं वचस्येकं, कर्मण्येकं महात्मनाम् ।
मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।
जिस व्यक्ति के मन, वचन और कर्म में एकता होती है, सामंजस्य होता है वह महान् आत्मा है। जिस व्यक्ति के मन, वचन और कर्म में विसंगति या विसंवाद होता है, वह दुरात्मा है।
मन, वाणी और कर्म की संगति ही प्रामाणिकता है और उनकी विसंगति ही अप्रामाणिकता है। प्रामाणिकता अचौर्य है और अप्रामाणिकता चोरी है। हमारे तत्त्व-चिंतकों ने कभी-कभी प्रामाणिकता की बहुत बड़ी कसौटी प्रस्तुत की है। उन्होंने लिखा है
यावद भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं हि देहिनाम् ।
अधिकं योभिमन्येत, स स्तेनो दंडमर्हति ।। जितने से पेट भरे उतना ही मनुष्य के लिए अधिकृत है। उतना ही उसका स्वत्व है। शेष उसका नहीं है, दूसरों का है। जो व्यक्ति उससे अधिक अपने अधिकार में लेना चाहता है वह चोर है और दंड पाने का अधिकारी है।
प्रामाणिकता या अचौर्य की यह परिभाषा बहुत ही अंतिम कोटि की परिभाषा है। इससे एक तथ्य स्पष्ट होता है कि अधिक संग्रह की दिशा में गतिशील मनुष्य प्रामाणिक नहीं रह सकता। इसे दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रामाणिक व्यक्ति अधिक संग्रह नहीं कर सकता। प्रामाणिक व्यवहार
दूसरों के प्रति सच्चा रहना प्रामाणिकता तो है किन्तु यह भाषा कभी भी मुझे आकृष्ट नहीं कर सकी। प्रामाणिकता की जो परिभाषा मुझे आकृष्ट कर सकी, वह है अपने प्रति सच्चा रहना। जो दूसरों का बुरा करने में अपना बुरा देखता है, वह बुराई से बच सकता है, पर-निरपेक्ष दृष्टि से प्रामाणिक रह सकता है। जिसकी सचाई का आधार व्यवहार की पृष्ठभूमि होता है, वह सच्चा रहता है तब, जब कोई दूसरा देखता है। वह सच्चा रहता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org