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मानसिक संतुलन अनुप्रेक्षा
साधना का अर्थ है-संतुलन का अभ्यास । प्रतिकूलता में पारा गर्म होना, आपे से बाहर होना, अनुकूलता में फूलकर कुप्पा बनना, दोनों ही असंतुलन के परिणाम हैं। मनुष्य को हर स्थिति में संतुलित रहना चाहिए। अभ्यास के बिना संतुलित रहना कठिन होता है। किन्तु साधना का लक्ष्य होने के बाद कठिन भी सरल हो जाता है।
मन क्यों टूटता है ? मन में बेचैनी क्यों होती है ? मन में डिप्रेसन क्यों होता है ? मन क्यों सताता है ? उसमें कमजोरियां क्यों आती हैं ? उसमें भय क्यों उत्पन्न होता है ? अकारण ही भय क्यों सताता है ? ये प्रश्न हैं। मैं समझता हूं, यह इसलिए होता है कि गधे पर हाथी का भार लाद दिया गया है। इतना भार आने पर गधा टूटेगा ही, दबेगा ही।
इन सब समस्याओं से मुक्त होने के लिए हम वर्तमान को समझें, वर्तमान में जीएं, पर अतीत से कट कर नहीं, अतीत का पूरा मूल्यांकन करते हुए। क्योंकि हम अतीत से बहुत प्रभावित होते हैं। इसलिए अतीत को समझना बहुत आवश्यक है। अतीत का परिष्कार करते चलें, पर वर्तमान में गधे पर इतना बोझ न लादें कि वह टूट जाए। बोझ को धीरे-धीरे कम करते जाएं। इन सारी समस्याओं से निपटने के लिए हमें मन और मन पर होने वाले प्रभावों को समझना जरूरी है।
___जब तक हम मन पर होने वाले प्रभावों के घटक तत्त्वों को नहीं समझेंगे, मन पर क्षेत्र का क्या प्रभाव होता है, काल का क्या प्रभाव होता है, इसको नहीं जानेंगे तब तक मानसिक शांति का प्रश्न समाहित नहीं होगा। वह प्रश्न ही बना रहेगा। इस संक्रमण और प्रदूषण के वातावरण में जीने वाला आदमी जब तक शोधन नहीं करेगा तब तक साधना की बात पर्याप्त नहीं होगी। चूल्हा है। आग जल रही है। ऊपर पानी से भरा बर्तन रखा हुआ है। आदमी सोचता है कि पानी गर्म न हो। नीचे आग जल रही है, बर्तन को आंच लग रही है तो पानी गर्म कैसे नहीं होगा ? जब तक आग है तब तक पानी गर्म होता रहेगा, उबलता रहेगा। नीचे तो हमारे भावों की आग जल रही है। अशुद्ध भावों की तेज अग्नि भभक रही है। प्रतिशोध का भाव है। वासना का भाव है। भय और घृणा का भाव है। राग और द्वेष का भाव है। यह अग्नि जल रही है तो ऊपर रखा हुआ मन गर्म क्यों नहीं होगा? वह
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