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अमूर्त चिन्तन
धर्म के तीन रूप हैं-१. उपासना और भक्ति, २. नैतिकता एवं व्रत-संकल्पशक्ति, ३. अध्यात्म चेतना का जागरण। धर्म का पहला रूप है नैतिकता, ईमानदारी एवं व्रत-संकल्पशक्ति। व्यक्ति अगर उपासना करता है, प्रामाणिक है, नाम जपता है तो बात समझ में आती है। किन्तु नैतिकता को बिलकुल तिलांजलि दे दें, अध्यात्म चेतना को छोड़ दें और कोरी उपासना का मार्ग पकड़ लें तो मुझे लगता है धर्म की हत्या हो रही है। आज धर्म तो बुराइयों को ढकने का साधन बन गया है। झूठ को पालने का साधन धर्म बन गया है। कब तक चलेगा ऐसा धर्म ? बहुत खतरा है। इसीलिए हम धर्म को वैज्ञानिक दृष्टि से देखें और देखने की दृष्टि यह हो सकती है कि किस प्रकार शरीरशास्त्रीय एवं मानसशास्त्रीय दृष्टि से हम परिवर्तन ला सकते हैं। संख्या की परम कोटि-शीर्षप्रहेलिका
जैन आगमों की गणना की परम कोटि का उल्लेख है। उसकी संज्ञा है-शीर्ष प्रहेलिका। उसके समक्ष आज की संख्या बहुत छोटी होती है। एक अंक पर दो सौ चालीस शून्य लगाने से वह संख्या बनती है। वह उत्कृष्ट संख्या है। जब विज्ञान ने सूक्ष्म गणित की बातें प्रस्तुत की, तब शीर्षप्रहेलिका की सत्यता स्वयं प्रस्थापित हो गई और उसे बहुत महत्त्वपूर्ण खोज माना गया। ध्वनि-विज्ञान की महान् उपलब्धि
जैन साहित्य में उल्लेख है कि एक घण्टा है अवस्थित । वह एक स्थान पर बजता है। उसकी ध्वनि से प्रकंपित होकर दूर-दूर हजारों-लाखों घण्टे बज उठते हैं। असंख्य योजन तक यह घटना घटित होती है। लोगों ने इस उल्लेख को कपोल-कल्पित बताया। किन्तु जब विज्ञान ने ध्वनि-तरंगों की द्रुतगामिता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, तब यह सत्य भी प्रमाणित हो गया। आज यह ध्वनि-विज्ञान की महानतम उपलब्धि माना जाता है।
जब तक व्यक्ति सूक्ष्म पर्यायों की ओर प्रस्थान नहीं करता तब तक सचाई को नहीं पा सकता। जब तक अनेकांत की दृष्टि का विकास नहीं होता, तब तक उस दिशा में प्रस्थान नहीं हो सकता। वैज्ञानिक उपलब्धि
मनुष्य सारी जीवन-यात्रा स्थूल शरीर की परिक्रमा करते हुए करता है। जीवन इसी स्थूल शरीर के आस-पास चलता है। इस सीमा को पार कर आगे जाने वाले कुछ ही लोग होते हैं। हमारे पास जानने के जितने भी साधन हैं, वे सब स्थूल हैं। वे सब स्थूल को पकड़ सकते हैं। सूक्ष्म को
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