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________________ मानवीय एकता अनुप्रेक्षा १५७ धर्म आत्मा की आंतरिक पवित्रता है, इसलिए उसका किसी जाति, वर्ग और संप्रदाय से सम्बन्ध नहीं हो सकता। किन्तु धर्म का बाहरी रूप संप्रदाय में प्रकट होता है, इसलिए वह जाति और वर्ग से भी जुड़ जाता है। महावीर ने अपने धर्म-शासन का द्वार सब जातियों और सब वर्गों के लिए खुला रखा था। उन्होंने कल्पना ही नहीं की होगी की उनका धर्म शासन किसी एक जाति या वर्ग से जुड़कर दूसरों के लिए द्वार बन्द कर देगा। किन्तु काल की गति ने ऐसा घटना-चक्र प्रस्तुत किया कि महावीर का मानवीय एकता का पक्षधर धर्म-शासन मानवीय अनेकता का पक्षधर हो गया। हम महावीर के मानवीय एकता के सिद्धान्त को विश्व के सामने प्रस्तुत कर सकते हैं। किंतु महावीर के आधुनिक धर्म-शासन को मानवीय एकता के पक्षधर के रूप में प्रस्तुत नहीं कर सकते। अपरिग्रह मानवीय एकता का महान् सिद्धांत है। इसे विश्व के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है, किंतु जैन समाज को इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। अनेकान्त मानवीय एकता का महान् सिद्धांत है। इसे जागतिक समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। किन्तु आधुनिक जैन शासन को सापेक्षता और समन्वय के महान् प्रयोग के घटक के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। सिद्धांत और व्यवहार के इस अन्तर्विरोध को देखकर प्रश्न होता है-क्या वे सिद्धांत केवल मनोग्राही और बुद्धिग्राही हैं या व्यावहारिक भी हैं ? यदि ये व्यावहारिक नहीं हैं तो इनको प्रस्तुत करने से क्या लाभ ? यदि ये व्यावहारिक हैं तो जैन-शासन इनके व्यवहार से वंचित क्यों ? कालचक्र की घटनाओं ने जैन-शासन को इतना प्रभावित किया कि महावीर के मौलिक सिद्धान्तों की प्रयोगभूमि नहीं रह सका। आज उस जैन शासन की अपेक्षा है जो महावीर के महान् सिद्धान्तों का प्रतिनिधि हो, जिसे महावीर के धर्मशासन का उत्तराधिकार प्राप्त हो। इसकी अर्हता विश्व का कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
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