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समन्वय अनुप्रेक्षा
मनुष्य अनेक हैं। अनेकता ने स्वतन्त्रता को जन्म दिया, स्वतंत्रता ने संघर्ष को और संघर्ष ने समन्वय को। भगवान् महावीर इस समन्वय के महान् द्रष्टा और सूत्रधार थे। इस समन्वय सूत्र ने अनेकता को समाप्त नहीं किया, किन्तु उसके साथ जुड़ हुई एकता को प्रदर्शित कर दिया। उसका अर्थ है कि अनेकता-विहीन एकता और एकता-विहीन अनेकता कहीं प्राप्त नहीं होती। जो व्यक्ति केवल अनेकता को देखता है, वह निरपेक्ष स्वतन्त्रता को देखता है। जो निरपेक्ष स्वतन्त्रता को देखता है, वह संघर्ष का निर्माण करता है। संघर्ष मनुष्य को त्रास देता है, इसलिए मनुष्य उसे समाप्त करना चाहता है, पर उसे एकता और अनेकता के समन्वय के बिना समाप्त नहीं किया जा सकता। महावीर ने नहीं कहा कि अनेकता का कोई मूल्य नहीं है और उन्होंने नहीं कहा कि एकता का कोई मूल्य नहीं है। उन्होंने कहा दोनों का मूल्य दोनों की सापेक्षता में है, निरपेक्षता में किसी का कोई मूल्य नहीं है। एकता-सापेक्ष अनेकता संघर्ष को जन्म नहीं देती। इसी प्रकार अनेकता-सापेक्ष एकता उपयोगिता को विनष्ट नहीं करती।
मनुष्य मनुष्य के बीच संघर्ष है। जाति, भाषा, संप्रदाय, प्रादेशिकता आदि के आधार पर वह चलता है। जहां भी कोई भेद की रेखा खिंचती है वहां संघर्ष का आरम्भ हो जाता है। निमित्त मिलते ही भीतर सोया हुआ राग-द्वेष का सर्प फुफकार उठता है।
समन्वय की पृष्ठभूमि में वीतरागता का दर्शन है। राग और द्वेष के उपशम का, चित्त की निर्मलता का तथा अहिंसा और मैत्री का मूल्य समझ लेने पर ही समन्वय का सिद्धांत समझ में आता है। न सर्वथा विरोध : न सर्वथा अविरोध
दो तत्त्व हैं चेतन और अचेतन । अनेकान्त ने दोनों के मध्य रहे हुए संबंध की खोज की और तीसरा नियम दिया कि चेतन और अचेतन में न सर्वथा विरोध है और न सर्वथा अविरोध है। हम नहीं कह सकते कि चेतन अचेतन का सर्वधा विरोधी है और यह भी नहीं कह सकते कि अचेतन चेतन का सर्वथा विरोधी है। यदि वे सर्वथा विरोधी होते तो आत्मा अलग होती, शरीर अलग होता। आत्मा और शरीर-दोनों इसीलिए जुड़े हुए हैं कि उनमें
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