SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य अनुप्रेक्षा आज प्रत्येक आदमी के मन में यह आस्था बैठ गई है कि समाज में सच बोलने का अर्थ है, आपदाओं को निमंत्रण देना, कठिनाइयों में फंसना । जो झूठ बोलने में माहिर होता है वह बड़े-से-बड़े अपराध करके भी बच जाता है । जो व्यक्ति वाक् चतुर होता है, झूठ को छिपाना जानता है, वह सफल हो जाता है। जो सच बोलता है वह बुद्धू होता है, पागल होता है, मूर्ख होता है - यह आज की आस्था है । इसी आस्था के कारण सारा व्यवहार गड़बड़ा गया है । भगवान् महावीर ने सत्य का सुन्दर दृष्टिकोण प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा- सत्य वही है जहां काया की सरलता है, भावों की सरलता है, वाणी की सरलता है और अविसंवादिता है । अविसंवादिता का अर्थ है- विसंगतियों से परे हो जाना। एक दिन एक बात कहना और दूसरे दिन दूसरी बात कहना - यह विवाद है । सत्य वह होता है, जो अविसंवादी होता है। दस वर्ष पूर्व जो बात कही, वही बात पचीस वर्ष बाद कहेगा। वाणी में विसंवादिता नहीं होगी । किन्तु आज भाव भी टेढ़ा है, वचन भी टेढ़ा है और जीवन के पग-पग पर विसंवादिता है। इस स्थिति में वाणी की शक्ति कैसे प्राप्त हो ? वाक्शुद्धि कैसे हो ? जिस व्यक्ति की वाक्-शुद्धि हो जाती है, उसके मुंह से निकली हुई बात को होना ही पड़ता है। वह कथन अन्यथा नहीं होता । वचनसिद्धि का सबसे बड़ा साधन है- सत्य । जो सत्यवादी होता है उसके कथन को कोई बदल नहीं सकता। उसके कथन को कोई अन्यथा नहीं कर सकता । उसकी वाणी तरंगों में, परमाणुओं में इतनी शक्ति आ जाती है कि प्राकृतिक घटना को वैसे ही घटना पड़ता है । एक व्यक्ति में सत्य का, ब्रह्मचर्य का इतना बल होता है कि प्रकृति भी उससे प्रभावित होती है- बादल होते हैं तो बिखर जाते हैं । नहीं हों तो बन जाते हैं। ऋषिराय साधक थे । वे जब भी पादविहार करते, आकाश में बादल मंडराने लग जाते। आतप मंद हो जाता। यह होता है और भी न जाने क्या-क्या घटित हो जाता है। सत्य की शक्ति असीम है। जिन लोगों ने सत्य की निष्ठा बनाए रखी, वे विलम्ब भले ही हो, आगे बढ़े हैं। यदि सत्य के प्रति अटूट निष्ठा होती है तो उसका अच्छा परिणाम अवश्य आता है। प्रश्न है मूल निष्ठा का । वह बनती ही नहीं, बनने से पहले ही मर जाती है। यदि वास्तव में सत्य का प्रयोग हो तो वाणी में भी अपार शक्ति आ जाती है । इससे वचनसिद्धि होती है । Jain Education International १३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003139
Book TitleAmurtta Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy