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सत्य अनुप्रेक्षा
ध्यान की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है-सत्य की दिशा में प्रस्थान, सत्य को जीने का अभ्यास । सत्य को झुठलाने का प्रयत्न नहीं करना ध्यान की उपलब्धि है। ध्यान के अभ्यास से गुजरने के बाद भी यदि यथार्थवादी दृष्टिकोण नहीं बना तो मान लेना चाहिए कि ध्यान सधा नहीं। ध्यान से आध्यात्मिक निष्पत्ति आनी चाहिए. अध्यात्म फलित होना चाहिए।
ध्यान की निष्पत्ति है-सचाई का जीवन जीना। जब आदमी सचाई का जीवन नहीं जीता है तो व्यावहारिक समस्याएं बहुत पैदा हो जाती हैं।
प्रेक्षा-ध्यान की उपसंपदा स्वीकार करने वाला साधक प्रतिज्ञा करता है- 'सच्चव्वतं उवसंपज्जामि' सत्य का व्रत स्वीकार करता हूं। ध्यान का सारा प्रयोजन है-सत्य की खोज। जो व्यक्ति ध्यान नहीं करता वह सत्य की खोज की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता। हमारे चारों ओर इतने सत्य हैं, इतने सूक्ष्म सत्य हैं, जिन्हें स्थूलदृष्टि से नहीं देखा जा सकता। उन्हें स्थूल मन से भी नहीं पकड़ा जा सकता। वे स्थूल चेतना के विषय नहीं बनते। उन्हें जानने-देखने के लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है, सूक्ष्म मन की आवश्यकता है और सूक्ष्म चेतना की आवश्यकता है। ध्यान के बिना दृष्टि को सूक्ष्म नहीं किया जा सकता, मन को पटु और सूक्ष्म नहीं बनाया जा सकता। ध्यान के बिना चेतना भी सूक्ष्म नहीं बन सकती। चेतना पर राग-द्वेष और मल के आवरण जमे हुए हैं। वे जब तक नहीं टूटते तब तक चेतना में सूक्ष्मता नहीं आ सकती। इसलिए ध्यान की साधना करने वाला सबसे पहले सत्य की खोज करता है और वह सत्य की खोज अपने से ही प्रारम्भ करता है। वह सत्य को बाहर नहीं खोजता, अपने में ही खोजता है।
सत्य की खोज के मुख्य रूप से चार आयाम हैं। पहला आयाम है-श्वास। दूसरा आयाम है-शरीर। तीसरा आयाम है-मन, चित्त बुद्धि । चौथा आयाम है-शुद्ध चैतन्य, आत्मा। ये सारे के सारे आयाम सत्य की खोज के आयाम हैं।
महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम ने एक बार पूछा'भंते ! सत्य क्या है ?' 'वह बताया नहीं जा सकता।' 'तो हम उसे कैसे जानें ?' 'तुम स्वयं उसे खोजो।'
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