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हुआ, जिसने एक नये पंथ का निर्माण किया । जो आज तेरापन्थ के नाम से प्रसिद्ध है ।
सम्मान्य आचार्य भिक्षु से लेकर आधुनिक काल के भारत-ज्योति आचार्य तुलसी तक नौ आचार्य एवं लगभग १००० साधु-साध्वियां हो चुकी हैं । त्याग, तपस्या, व्रत, उपवास एवं आचार-निष्ठा में यह पंथ श्रेष्ठ है, साथ ही प्रत्येक साधु-साध्वी, समण - समणी अध्ययनरत और प्रतिभा सम्पन्न हैं। दीक्षा पूर्व शिक्षा पर प्रभूत बल दिया जाता है, जिसका परिणाम यह हुआ कि इस पन्थ ने एक तरफ तुलसी राम को तराशकर समदर्शी आचार्य श्री तुलसी बना दिया तो दूसरी तरफ गवांरू बालक 'नत्थुआ' भी युवाचार्य महाप्रज्ञ जैसे श्रेष्ठ दार्शनिक, आशुकवि एवं सहस्रावधानी व्यक्तित्व बन
गया ।
इस पंथ के सन्तों द्वारा संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, राजस्थानी एवं अंग्रेजी साहित्य के विभिन्न विधाओं से सम्बद्ध अनेक महार्घ्य ग्रन्थों की विरचना की गई ।
राजस्थानी साहित्य के क्षेत्र में यह पंथ सबसे आगे है। आचार्य भिक्षु से लेकर आचार्यश्री तुलसी तक राजस्थानी भाषा में शताधिक ग्रंथों का विरचन हुआ है ।
" चर्चावादी कुशल - प्रशासक मीमांसक संगायक हो" आदि गुण सम्पन्न आचार्य भिक्षु के अनेक ग्रन्थ भिक्षुग्रन्थरत्नाकर ( दो भागों ) में संकलित हैं, जो उनकी महनीय - कवित्व शक्ति एवं सारस्वत - प्रतिभा के चूड़ान्त निदर्शन हैं ।
तेरापंथ के कवियों एवं लेखकों में भिक्षु स्वामी के बाद श्रीमज्जयाचार्य का प्रमुख स्थान है । श्रीजयाचार्य ने अनेक ग्रन्थों की विरचना की, जिसमें आगमों की व्याख्यायें भगवती की जोड़, पण्णवणा की जोड़, उत्तराध्ययन की जोड़ आदि प्रसिद्ध हैं । राजस्थानी - साहित्य की प्राचीन - विधाओं - हुंडी दृष्टांत - साहित्य, चोढालियो, विलास, ढालियो, रास, ढालां, चौपई, सिखावण आदि का संवर्द्धन किया। उनकी रचनाएं आगम भाष्य, तत्त्वचिंतन, संस्मरण, आख्यान, स्तुति - काव्य, विधान-मर्यादा, व्याकरण, उपदेश आदि से सम्बद्ध हैं । संस्मरण-साहित्य में भिक्षु दृष्टांत प्रसिद्ध है ।
आचार्य परम्परा में जयाचार्य के बाद
राजस्थानी - साहित्य सम्वर्द्धकों
।
आपको संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी हासिल है। माणकमहिमा,
में आचार्यश्री तुलसी का महत्वपूर्ण स्थान है के अतिरिक्त राजस्थानी भाषा में ' महारथ' डालिम - चरित्र, कालूयशोविलास मगनचरित्र, मां वदनां, नंदन - निकुंज, सोमरस आदि कृतियाँ प्रसिद्ध हैं । कालूयशोविलास राजस्थानी साहित्य का मानक ग्रंथ है ।
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