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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
सेठ सुदर्शन को रानी के महल में लाती है ।
स्थविर धर्मघोष दर्शन-ज्ञान-चारित्र सम्पन्न साधु के रूप में प्रस्तुत हुए हैं । इस प्रकार आचार्यप्रवर भिक्षु चरित्र-चित्रण में सफल हुए है। कथोपकथन
कथोपकथन या संवाद किसी भी काव्य के रमणीयत्व संवर्द्धन में सहायक होता है । इससे नाटक की तरह रोमांचकता एवं नवीनता का संवर्द्धन होता है । सुदर्शनचरित्र में अनेक सुन्दर संवादों का संगुम्फन हुआ है, जो मुख्य कथा को फल लाभ तक ले जाने में सफल हुए हैं। सेठ सुदर्शन-कपिला, कपिला-अभया, अभया-धात्री, सुदर्शन-मनोरमा, सुदर्शन-स्थविर-धर्मघोष आदि संवाद प्रमुख हैं। सुदर्शन-कपिला संवाद में कपिला की कामुकी-वृत्ति एवं सेठ की शील-दृढ़ता का परिचय मिलता है। कपिला-अभया संवाद में अभया का झूठा रूप-गर्व एवं कपिला को फंसाने वाली दुष्टवृत्ति का प्रतिपादन हुआ है। अभया-धात्री संवाद में अभया की काम-विह्नता एवं धात्री की निपुणता एवं सुदर्शन-मनोरमा में नारी-जाति का त्याग स्पष्ट रूपेण प्रतिबिम्बित हुआ है। रस--
रस को काव्य की आत्मा कहा गया है। रसहीन काव्य काव्य नहीं हो सकता। सुदर्शन चरित्र वीर रस प्रधान है तथा शान्त, करुण, शृंगार, भयानक आदि रस वीररस के उपकरण रूप में प्रस्तुत हुए हैं। वीररस :
वीररस का स्थाईभाव उत्साह है। सेठ सुदर्शन का चरित्र वीररस का श्रेष्ठ निदर्शन है । बाह्य दुश्मनों पर विजय प्राप्त कर तो सभी योद्धा बन जाते हैं लेकिन वास्तविक योद्धा तो वहीं होता है जो आन्तरिक रिपुओं को जीत कर रत्नत्रय में स्थित रहता है।
सेठ जीवन भर अत्यन्त उत्साह के साथ संघर्ष शील रहता है, सर्वत्र विजयी होता है । शीलवत में वह दृढ़ रहता है। कवि ने अनेक स्थलों पर सेठ के लिए दृढ़धर्मा, दृढ़वती आदि विशेषणों का प्रयोग किया है। रूपवती यौवनोन्मत्ता अभया के द्वारा अंग में लिपट जाने पर भी सेठ अडोल रहता है
सेठ ने अंग सू भीडियो पिण डिग्यो नहीं तिल मात ।२ वह आत्मा को दृढ़ कर लेता है.--- जी हो सेठ सुदर्शन नाम, तिम दृढ कर लीधी निज आत्मा जी ।" प्राण पर संकट आया देखकर वह सेठ तनिक भी नहीं डिगता है ।
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