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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
कमनीयता व मौलिकता का पूरा ध्यान रखा है । यह प्रकृति वर्णन कथानक को आगे बढ़ाने में सहायक हुआ है, बोझ बन कर नहीं आया है । प्रकृति चित्रण के साथ-साथ ऋतु वर्णन भी बड़ा ही सरस बन पड़ा है। कवि ने तेरापंथ के मर्यादा महोत्सव जैसे यथार्थ को ऋतुओं के रूप में परिकल्पित कर अपने सृजन शिल्प को नई ऊंचाई प्रदान की है। प्रकृति वर्णन के कुछ उदाहरण दृष्टव्य है--
गंगा जमना और सुरसती, उछल-उछल कर गलै मिले । विरह, पताप, संताप भूला कर रूं-रूं हर्षाकुर खिलै ॥ गहरो रंग हृदय में राचे, नाचै मधुकर जिधर निहारो। तेरापंथ पंथ रो प्रहरी, म्हामोछब लागे प्यारो ।।
(कालू यशोविलास, पृ० २९७) नीर बहै झर-झर झरणां रो, करणां रो बहलाव । अम्ब-डार कोयलियां कुजै, गूंज मधुरा राव । जाई-जूही री खुशबू ही, अलि निकुरम्ब विहारे ।
सारे"" ..........
(मगन चरित्र, पृ० ७) कला पक्ष-आचार्यश्री के चारों चरित काव्य सृजन की ऊर्जा के सूक्ष्म संवाहक हैं। यही कारण है कि इन कृतियों का कलापक्ष कथ्य के नूतन उन्मेष और नव शिल्पन की मीनाकारी से ओत-प्रोत हैं। इस जीवंत अभिव्यक्ति का साक्षात्कार दृष्टव्य है----
१. छन्द -कवि ने अपने भावों को छंदों में पिरोकर कथावस्तु को सहज सौन्दर्य प्रदान किया है। छन्दों में आपका राजस्थानी का "गीत' छन्द सर्वाधिक प्रिय रहा है । गीत के बाद दोहा, सोरण, एवं लावणी छन्द प्रिय रहे हैं । इन चारों छन्दों का चारों कृतियों में सर्वाधिक बार प्रयोग हुआ है। गीत छन्द लय युक्त है और उसे विभिन्न राग-रागनियों में निबद्ध किया गया है। इसलिये गेयता इनका प्रमुख लक्षण है। चारों कृतियों में प्रयुक्त अन्य छंद इस प्रकार हैं ----
कलश, छप्पय, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, दुमिला, इन्दव, गीतक, चौपई, मुक्त, शार्दूलविक्रीडित, भुजंगप्रयात, मोतीदाम, वसन्ततिलका, उपजाति दुतविलम्बित, रामायण, हरिगीतक नवीन छन्द आदि ।
२. अलंकार-आचार्यश्री ने अपने काव्य में अलंकारों को सप्रयास और लूंस-ठूस कर नहीं भरा हैं, इस कारण ये चारों कृतियां बोझिल नहीं अपितु सरस हैं। जहां कहीं पर भी अलंकार आये हैं वे सहज एवं स्वाभाविक रूप से आये हैं । इससे काव्य का कलागत सौन्दर्य बढ़ा है और कवि की कलावादी दृष्टि की प्राकृतिकता एवं स्वप्रेरित गरिमा भी स्पष्ट हुई है । यह
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