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राजस्थानी शब्द-सम्पदा को तेरापंथ का योगदान
D डा० सियाराम सक्सेना 'प्रवर'
कई शताब्दियों से जन-जन की भावनाओं और विचार-सरणियों का वहन और अभिव्यंजन करती आ रही राजस्थानी भाषा एक स्वत्ववती भाषा है। डिंगल जन-भाषा के साथ ही वैचारिकों, दार्शनिकों, भक्तों और राजकाजियों की भी भाषा रही है। अतः इसमें संप्रेषण और अभिव्यक्ति की प्रभूत क्षमता है; और इस प्रकार यह विचारों और अनुभूतियों को तीव्रता तथा व्यापकता दोनों स्तरों पर हृदयंगामी बनाने में पूर्णतया सक्षम है। परिमाण में और गुण में भी यह भाषा पर्याप्त रूप से समृद्ध है ।।
तेरापंथ के सन्तों ने भाषा और साहित्य की अपूर्व श्रीवृद्धि की है। उनकी सहज और अजस्र-धारा-प्रवाह वाणी ने काव्य और गद्य साहित्य का भर पूर शृंगार किया है। उनके भक्ति-गीत, अध्यात्म-पद, स्तुति काव्य, कथाएं, जीवनियां, आख्यान, संस्मरण, और तत्त्व-निरूपण राजस्थानी भाषा की सुन्दर निधि हैं । यह कालजयी साहित्य है, जो अपने समाज और राष्ट्र को भी कालजयी शक्ति प्रदान करता है। तेरापंथी सन्तों की समृद्ध भाषा अनुभूतियों की मार्मिक अभिव्यक्ति करती है । तीव्रता से प्रवाहित हुई अभिव्यक्ति जन-मानस में सहज रूप से प्रविष्ट और संवादित होती है, और उसे आन्दोलित तथा कल्लोलित करती है । तेरापंथी संतों के साहित्य में आत्मा की सुगंध है, जो भाषा के माध्यम से जन-चेतना को सुवासित और ऊर्ध्वमुखी करती है।
किसी भी भाषा की शब्द-सम्पदा की समृद्धि का प्रथम और प्रमुख लक्षण है उसकी संख्या की विशालता । उसमें शब्द इतनी अधिक संख्या में हों कि वे विश्व भर में उत्पन्न की हुई चिन्तन-राशियों के एक-एक सूत्र और विचार की प्रत्येक इकाई को स्पष्टता के साथ प्रकट कर सकें । शब्दों की दूसरी प्रमुख विशेषता होनी चाहिये चिन्तना-व्यक्तियों को बिम्बात्मकता प्रदान करने की क्षमता । बिम्ब-क्षमता प्राप्त करने के लिए शब्दों को प्रायशःप्रतीकात्मकता धारण करनी होती है। अतः हृदयंगामी प्रतीकात्मकता भाषा की तीसरी प्रमुख विशेषता है । तेरापंथी काव्य में यह बहुत-कुछ दिखाई देती है। भाषा की चौथी विशेषता होती है शब्दों की अर्थ-वैशद्यकारिणी पर्याय-बहुलता। इसके सहयोग से भाषा अर्थ-विच्छितियों की बहुरंगी भंगिमा धारण
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