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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
यह साहित्य दूहा, सोरठा की परम्परा को आज भी जीवंत बनाये हुए है । इतना ही नहीं 'माणक महिमा' में 'लावणी' जैसे लोक छंद का प्रयोग भी किया गया है। इस आलेख में, मैं आवर्तन को प्रमुख प्रतिमान बना रहा है, कुछ एक संकेत और भी हैं। विस्तृत अध्ययन की दिशा में इसे मात्र विनम्र सूत्र विन्यास ही समझा जाना चाहिए।
शैली विज्ञान आवर्तन को शैली का विशिष्ट उपादान प्रतिपादित करता है। आवर्तन में मूल संदेश तो निरन्तर पुष्ट होता ही है, आंतरिक लयनिर्मिति भी होती है, अतएव यह विविध अर्थ छायाओं को परस्पर संसक्त करने का विधान भी है। आवर्तन में केवल शब्द ही आवर्तित नहीं होते, संरचना का भी आवर्तन होता है। समान संरचना में शब्द भिन्न हो सकते हैं, इस के कारण किञ्चित् अर्थवैभिन्न्य भी प्रतीत हो सकता है, फिर भी उनमें अर्थ संकेतों का परस्पर व्यापन रहता है । समान संरचनाओं में प्रयुक्त ये भिन्न शब्द एक ही हाइपोग्राम से संबद्ध होते हैं । आवर्तित संरचनाएँ अग्रप्रस्तुती का एक प्रकार भी है और समांतरता का विधान भी।
__ दोनों ही ग्रन्थों में इसका प्रयोग प्रयोजन-प्रेरित होने से विशिष्ट प्रतीत होता है । माणक महिमा के प्रारम्भ में ही माणक-स्मृति प्रसंग है, इसमें आवर्तन बहुत सार्थक प्रयोग हुआ है । आवर्तित अंशों की संरचना समान है, पर अर्थछाया में भिन्नता है, देखें
१. क्यूं नहीं साधना धन री, बलिहारी जाऊँ मैं ? २. क्यूं ना सत्पुरुषार्थी नै, ध्यानस्थ ध्याऊँ मैं ? ३. वांरै रस पर धार री, आख्या सुणाऊँ मैं ? ४. उण री पल-पल छिन-छिन में, क्यूं सुध बिसराऊँ मैं ?'
रेखांकित अंशों की संरचना समान है, कर्ता का निवेश सभी संरचनाओं के अन्त में और क्रिया पद मध्यस्थ है । कर्तापद का अंत में निवेश उसे अग्रप्रस्तुत (Fore grounded) करता है । १, २, और ४ चरणों में प्रश्नवाचकता, निषेधात्मक 'नहीं', 'नां' के योग से विधेयात्मक बन गयी है, अर्थात् वक्ता वैसा करेगा ही। तीसरे चरण में प्रश्नात्मकता का अध्याहार है। तीसरे और चौथे चरण में प्रयुक्त 'वार' और 'उणरी' इन चरणों की पूर्व प्रसंगों से संसक्ति का विधान करते हैं । वक्ता की विभिन्न मानसिक स्थितियों को व्यक्त करने में यह आवर्तन सक्षम है। विधेयांश में प्रयुक्त पद ही उद्देश्य कथन के शब्दों को भी निर्दिष्ट करते हैं-'आपने धन की साधना नहीं की, इसीलिए मैं बलिहारी जाता हूँ।' इसमें वक्ता आचार्य माणक की त्यागवृत्ति से अभिभूत है । 'आप सत्पुरुषार्थी हैं, मैं ध्यानस्थ होकर ध्यान क्यों न करूं।' इसमें वक्ता की श्रद्धा, इच्छा और संकल्प मुखरित हैं।
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