________________
तेरापन्थ का राजस्थानी प्रबंध-काव्य
साहित्य को 'समाज का दर्पण', 'जीवन की व्याख्या', 'मानवीय चित्तवृत्तियों का प्रतिबिम्ब' एवं जीवन की अनुकृति जैसे अभिधानों से संज्ञायित किया जाता रहा है । साहित्य की रचना में जहाँ साहित्यकार की सृजनात्मक कल्पना, शिल्प और मनस-तत्त्व क्रियाशील होते हैं वहीं प्राणतत्त्व की पुष्टि समाज और उस काल विशेष के आकलन तथा प्रभाव द्वारा होता है । साहित्य और जीवन जल और वीचि तथा वाक् और अर्थ की भाँति सम्पृक्त होते हैं । हमारे जीवन का लेखा-जोखा कलात्मक मुद्रा में साहित्य में विद्यमान रहता है । उत्कृष्ट साहित्य की कसौटी भी यही है कि वह देश, जाति और काल से अनुप्राणित होते हुए भी सार्वकालिक, जीवन-मूल्यों की प्रस्थापना करे । वस्तुतः साहित्यकार के व्यक्तित्व और समाज को स्वतन्त्र होकर नहीं देखा जा सकता | साहित्य संसार के प्रति हमारे भावों और विचारों की प्रभावपूर्ण शाब्दिक अभिव्यक्ति है । संवेदनशील हृदयों की आवेग संकुलता एवं अनुभूति - प्रवण - छवियाँ बहुविध अभिव्यक्त होती हैं । क्रौंचवध की सामान्य सी घटना ने आदि कवि वाल्मीकि के जीवन के एक भाव विन्दु को महाकाव्य के महार्णव में परिवर्तित करने की प्रेरणा दी। इसी महार्णव की रसार्णव में परिणति 'रामचरित मानस' (तुलसी) में देखी जा सकती है । 'मेघदूत' में कालिदास का गीतात्मक उद्रेक खण्डकाव्य के रूप में बह निकला तो कबीर, सूर और तत्पश्चात् बिहारी - घनानंद ने संवेदना की अभिव्यंजना जीवनानुभवों से जुड़े सन्दर्भों में मुक्तक के अन्तर्गत की । वस्तुतः ये तीनों अभिव्यंजनाएं जीवन के पूर्ण या खण्ड या क्षणिक स्वरूप को रेखांकित करती हैं । इसी स्वरूप व्यंजना को दृष्टिगत करते हुए साहित्य शास्त्रियों और मनीषियों ने काव्य के तीन भेद किए - प्रथम प्रबन्ध काव्य, द्वितीय मुक्तक काव्य तथा तृतीय चम्पू काव्य ।
डॉ० उमाकांत
काव्य के कथित तीनों ही भेदों में प्रबन्ध काव्य की महत्ता सर्वोपरि स्वीकारी गई है । 'रामायण', 'महाभारत', 'पउमचरिउ', 'पृथ्वीराज रासो', 'पद्मावत', 'रामचरित मानस', 'साकेत', 'कामायनी', 'उर्वशी', 'अंधायुग', 'कनुप्रिया', 'संशय की एक रात' तथा हिन्दूयेत्तर महाकाव्यों में पैराडाइज - लॉस्ट, 'आइल्डस ऑफ द किंग', सोहराब एंड रूस्तम', 'लाइट ऑफ द एशिया' आदि को रेखांकित किए जाने तथा मानव जीवन की विकास यात्रा में 'शील
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org