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________________ तेरापंथ प्रबोध-एक अध्ययन १९५ जिसके बारे में कभी नहीं सूना, ऐसे अर्थ के विषय में भी वे तत्काल जबाब देते थे । तत्कालीन परम्परानुसार अल्पायु में ही भीखण जी का विवाह हो गया। साधु-साध्वियों के सान्निध्य में रहने से भीखण जी व उनकी पत्नी के मन में वैराग्य भावना जाग्रत हो गई । एक ओर साधु जीवन की तैयारी दूसरी ओर काल का क्रूर व्यंग्य । अकस्मात् पत्नी का वियोग हो गया। इस घटना ने जाग्रत-भीखण को और जगा दिया। भीखण दीक्षा के लिए तैयार हो गये परन्तु माता मोहवश अनुमति नहीं दे रही है। आचार्य रघुनाथ जी स्वयं समझाने को आते हैं । माँ कहती है मेरा बेटा राजा बनेगा । जब यह गर्भ में था तब मैंने सिंह का स्वप्न देखा था। इसलिए में इसे साधु नहीं बनाऊँगी। आचार्य रघुनाथजी ने कहा यह साधु बन कर सिंह की तरह गूजेगा। कोई राजा बनता है, अपने देश में राज करता है साधु तो राजाओं का भी राजा होता है। इस बात से दीपां बाई प्रभावित हो गई। भीख ग जी को दीक्षा की आज्ञा प्राप्त हो गई। वे मुनि बन गये। मुनि भीखण जी ने देखा शास्त्रों में वर्णित मुनिचर्या और तत्कालीन साधुओं की चर्या में मेल नहीं है । कथनी और करनी का अन्तर देख संदेह उभरा। इसी समय राजनगर के श्रावकों ने साधु-संघ में बढ़ रहे शिथिलाचार और सुविधावाद से खिन्न होकर साधुओं को वंदना करना छोड़ दिया। मुनि भीखण को श्रावकों को समझाने हेतु राजनगर भेजा गया । उनका समझाने का ढंग इतना विलक्षण था कि श्रावक उनके प्रभाव में आ गये। उसी रात मुनि भीखण को तीव्र ज्वर आ गया। ज्वर का कारण खोजते-खोजते उन्हें आत्मग्लानी होने लगी कि मैंने श्रावकों की सही बात झुठलाने का प्रयत्न किया है । यदि मैं स्वर-मुक्त हो जाऊँ तो नये सिरे से इस परिस्थिति पर विचार करूँगा। सत्संकल्प ने दवा का काम किया। भीखणजी स्वस्थ हो गए । वहाँ से आकर उन्होंने गुरु को समझाने का बहुत प्रयत्न किया पर गुरु नही माने, अन्त में उन्हें संघ छोड़ना पड़ा।' अभिनिष्क्रमण कर पहली रात श्मशान में बितायी। यहीं से संघर्षों की कहानी प्रारम्भ हो जाती है । जीवन की अनिवार्य अपेक्षाओं की पूर्ति भी मुश्किल हो गई। लेकिन विषम परिस्थितियों में वे अडिग रहे । अपनी साधना में जप-तप आदि से नया निखार लाते रहे। एक दिन फतेहमलजी दिवान भीखणजी की धर्मक्रांति के संबंध में चर्चा कर रहे थे। उनके पास सेवग है जाति का एक कवि खड़ा था। वह सारी बातें ध्यान से सुन रहा था। तेरह साधु, तेरह श्रावक संख्या का अद्भुत योग देखकर उसने एक दोहा सुनाया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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