________________
तेरापंथ के राजस्थानी काव्यों में चारित्रिक संयोजन
༡,༣༥
"गुरु मघवा सुर-गमन लख, कालू दिल सुकुमार । भारी विरह विखिन्न ज्यूं, कृषि बल बिन जलधार ॥' त्यागमूर्ति के रूप में कालूगणि का चित्रण किया गया है । उन्होंने आचार्य पद को काफी अनुनय-विनय के पश्चात् स्वीकार किया
था----
"सारा मिल अति आग्रहे, सिंहासन शुभ साज । मुश्किल स्यूं आसित किया, श्री कालू गुरुराज ।
वात्सल्य की प्रतिमूर्ति के रूप में भी कालूगणि के चरित्र को लिया जा सकता है । वे सभी के प्रति समभाव भी रखते थे, जिसका परिचय देते हुए आचार्य श्री तुलसी ने लिखा है
"अद्भुत वत्सलता भली रे, सारां पर इक साथ । सकल जन मोद स्यूं रे, त्रिभुवन तात वदात ॥
संघशासन में कालूगणि बहुत ही सफल रहे आचार्यश्री ने उनकी शासन क्षमता को उनके जीवन की नैसर्गिक प्रतिभा के रूप में स्वीकार किया है, जिसका उदाहरण सहित आपने वर्णन किया
" रवि नै कुण सीखावै, पंक प्रशोषणो, अमृतरुचि नै आवे, पंकज पोषणो । सागर में शोभाव, सहज सधीरता, त्यूंही कालू काये, पटु कोटीरता । "
१२०
संतों को अपने जीवन का मोह नहीं होता । वे मानते हैं, शरीर जन्म लेता है, मरता है लेकिन आत्मा तो अमर है तभी तो आचार्यश्री ने अपने गुरुमुख से ये वचन उद्धृत करवाये हैं—
"जीव मरै शरीर डाक्टरां, आत्मा अमर बखांवा ।'
२१
ܝܝ
१८१
संत हृदय भी मातृस्नेह अभाव में आभास कालुगण के अन्तिम समय के भावों से माता से बहुत दूर होते हैं
११२२
"अंग स्थिति अवलोकतां रे, ओ तो दुष्कर कार । धोरां धरती मां रही रे, म्हे बैठा मेवाड़ ।' आचार्यश्री ने कालूगणी की माता को एक चित्रित किया है । पुत्र के सुरगमन-संवाद को सुनकर वह नहीं करती, बल्कि अन्य लोगों को भी विरह त्यागने का संदेश देती हुई कहती
वीर माता के रूप में स्वयं ही धैर्य धारण
Jain Education International
कितना दुःखी होता है इसका स्पष्ट होता है, जहाँ वे अपनी
1123
"जोग विजोग शुभाशुभ जोगे, गई वस्तु फिर कुण पाई ।' आचार्य श्री की महत्वपूर्ण कृति 'माणक महिमा' रही है, जिसमें आचार्य माणक मुनि का चरित्र संजोया गया है। इस संबंध में एक तथ्य
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org