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तेरापंथ के प्रमुख राजस्थानी कवि
साध आपरा पांव
कदै न लगे सजग रं
जग रा घाल्या घाव ||
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मुनिश्री सागरमलजी के भक्ति गीतों में काव्य तत्त्व बखूबी के साथ उभरा है। मोहनलालजी 'आमेट', मुनि वत्सराजजी मुनि सुखलाल आदि अनेक संतों ने राजस्थानी में सौष्ठव पूर्ण रचनाएं की हैं । मधुर गायक मुनि मधुकर जी भी इस क्ष ेत्र में योगभूत बने हैं । उनके गीतों की शब्द - संयोजना और भावों का पैनापन दोनों ही दर्शनीय हैं। उनके प्रचलित गीत के बोल ये हैं -
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'कुण ऊँचो कुण नीचो ?'
मिनख - मिनख में भेद-भाव री भींत अरे मत खींचो । दया दिखावै पशुवां पर मिनखां ने हीणा मान
धरम नाम पर बण्या बावला कुण समझावै आं काली करतूतां स्यू आगी में अब घी मत सींचो ।' साध्वी समाज ने भी काव्य-रचना के क्षेत्र में अपनी लेखनी का उपयोग किया है । साध्वी जयश्रीजी, कनकश्रीजी, कमलश्रीजी आदि अनेक साध्वियाँ इस स्तम्भ में गतिमान हैं ।
मैंने तो नमूना मात्र पेश किया है । और भी अनेक कवि-प्रतिभाएं इस क्ष ेत्र में उभर रही हैं । आचार्यप्रवर की प्रेरणा से तेरापन्थ साहित्य के क्षेत्र में जो धारा प्रवाहित हुई वह निरन्तर गतिशील रहे और विद्वत्जन उन रचयिताओं की रचनाधर्मिता पर गहरा अनुसंधान करें, यही अपेक्षा है ।
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