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तेरापंथ का राजस्थानी में अनूदित साहित्य
प्रमाणों के साथ इस पद की समीक्षा करते हुए वे उपसंहार में कहते हैं
" स्नान विशेषण सोय वा पूजी गृह देवतां । उभय अर्थ अवलोय सत्य सर्वज्ञ वदैति को ॥
भगवती जोड़ की रचना के उपसंहार में जयाचार्य ने प्रशस्ति के दोहे लिखे हैं, जिनमें किया गया आत्म निवेदन सत्यशोध की भावना का शाश्वत प्रवचन है। उन्होंने अपना अनाग्रही दृष्टिकोण मुक्त रूप से उभार कर रख दिया है |
मैंने भगवती सूत्र व उसकी वृत्ति को देखकर उसकी व्याख्या लिखी है । दूसरे आगमों का सहारा भी लिया है। कुछ अर्थ मैंने अपनी बुद्धि से किए हैं। मैंने इस बात का सदा ध्यान रखा है कि कोई भी अर्थ सिद्धांत के विरुद्ध न हो । मैंने कहीं-कहीं संक्षिप्त अर्थ का विस्तार किया है और कहीं पर विस्तृत अर्थ का संक्षेप किया है। कहीं-कहीं वैराग्य वृद्धि के लिए उपदेश की शैली का, तो कहीं पर व्याख्यान की रसात्मक शैली का प्रयोग किया है । कहीं पर तुक मिलाने के लिए नए शब्दों का प्रयोग किया है तो कहीं अनुमान से भी काम लिया है ।
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इस कृति में मैंने अपनी ओर से सिद्धांत से अविरुद्ध निरूपण किया है । फिर भी कोई सिद्धांत विरुद्ध बात आ गई हो तो ज्ञानी का वचन मुझे प्रमाण है । कोई प्रबल पण्डित हो, उसे आगमों के आधार पर इस रचना में कोई सिद्धांत विरुद्ध लगे तो वह उसे निकाल दे । इस सम्बन्ध में विवरण मिलता है कि मैं 'मिथ्या में दुष्कृतम्' का प्रयोग कर अपने आपको निर्भार अनुभव करता हूँ । पठनीय है कुछ दोहे जयाचार्य की अपनी ही भाषा में -
(२) अन्य सिद्धांत तणा बलि, न्याय मेल्या इण ठाम ।
afe केइक निज बुद्धि थकी, अर्थ कह्या अभिराम ॥ (३) अर्थ कियो फुन शब्द नों, ते पिण मिलतो जाण । विस्तार कहां, अल्प नों किहां संकोची वाण ॥ ( ४ ) किहां वैराग्य बधायवां, उपदेश्यो अधिकाय । कहांइक चोज लगाय नै, व्याख्यानादि कहाय ॥ ( 4 ) इत्यादिक इण जोड़ में, दाख्यो मिलतो जाण । मिलतो जु आयो हुवै, ज्ञानी व ते प्रमाण |! (९) बलि कोइक पंडित प्रबल हुवै, आगम देख उदार । जे विरुद्ध वचन हवे सूत्र थी, ते काढ़े दीजो बार ॥
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