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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
लिखा गया है | शायद ही कोई ऐसा धर्म संघ होगा जो अपने इतिहास को इतना व्यवस्थित रख सका हो। इसके सैकड़ों सैकड़ों हस्तलिखित पृष्ठ-पत्र हैं । यद्यपि मुख्य रूप से यह तेरापंथ की घटनाओं से ही आकीर्ण है पर प्रसंगतः तत्कालीन समाज, राजनीति, साहित्य तथा सम्प्रदायों का भी इसमें उल्लेख हुआ है ।
टब्बा
जैन आगमों की मूल भाषा प्राकृत है । राजस्थानी जानने वालों को लाभान्वित करने के लिए उस पर राजस्थानी में टब्बे लिखे जाते रहे हैं । एक प्रकार से ये शब्दार्थ तथा भावार्थ के मिश्रित प्रतिरूप होते हैं । इन्हें लिपिबद्ध करने का एक विशेष क्रम होता है । हस्तलिखित प्रतियों में बड़े अक्षरों में एक विशेष अन्तराल से सूत्र - पाठ लिखा होता है । उस अन्तराल में छोटे अक्षरों में अर्थ लिखा हुआ होता है । जिन साधु-साध्वियों को प्राकृत का ज्ञान नहीं होता वे ऐसी प्रतियों का प्रवचन के अवसर पर उपयोग करते हैं । इनके पढ़ने का भी एक क्रम होता है । पहले शब्द पढ़ना तथा फिर शब्दार्थ पढ़ना, यह इसका एक क्रम होता है । आचार्य भिक्षु ने ठाणां पर टब्बा लिखा है । जयाचार्य ने भी आचारांग सूत्र पर टब्बा लिखा है । आपके द्वारा लिखित टब्बे की यह विशेषता है कि उन्हें किसी प्रसंग में जहां भी कोई विसंगति प्रतीत हुई उसका दूसरे आगम से न्याय मिला कर उसे स्पष्ट किया है ।
वार्तिकाएं -
स्पष्टता की इस विधा को वार्तिका कहा जाता है । न केवल जयाचार्य ने अपितु अनेक ग्रन्थों पर अनेक लोगों ने महत्वपूर्ण वार्तिकाएं लिखी हैं । ऐसी सैकड़ों सैकड़ों वार्तिकाएं समय-समय पर लिखी जाती रही हैं । अकेले भगवती सूत्र पर सैकड़ों महत्त्वपूर्ण वार्तिकाएं लिखी हैं ।
रसाकसा
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रसाकसा एक परिभाषिक शब्द-संकेत हैं । संस्कृत में इसका रूप रहस्याकर्षण समझा जाता है । शास्त्रों में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनका कोई स्पष्ट विधि-निषेध नहीं होता । उन्हें प्रकरण -संदर्भ से ही समझा जा सकता है । ऐसे रहस्यपूर्ण प्रसंगों को संकेतित करने के लिए 'रसाकसा' के रूप में विषयवार सूचियाँ बना ली जाती हैं। जब भी आवश्यकता होती है उन सूचियों के आधार पर मूल पाठ से इच्छित रहस्य को समझ लिया जाता है । पूरे शास्त्रों पर इस प्रकार के अनेक रसाकसा बने हुए हैं। ये रसाकसा किसी एक-एक व्यक्ति द्वारा नहीं लिखे गए हैं। समय-समय पर अनेक साधु-संतों तथा आचार्यों ने इनकी रचना की है ।
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