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उपदेश रत्न कथा कोश : एक विवेचन
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इसमें अनेक ऐसे शब्द भी आये हैं जो राजस्थानी के वर्तमान शब्दों के पूर्व रूपों को उजागर करते हैं। इन प्रयोगों से अनायास ही यह जाना जा सकता है कि वर्तमान में प्रयुक्त इन शब्दों का विकास क्रम क्या रहा है ? या उनमें क्या विकार आ गया है ? कितोयक (कितोक), रुपइया (रिपिया) धवला (धोळा), रहिवाद्यो (रैवाद्यो) बाहिला (भायला), साहमी (सामी) ताहिरै (थारै) एहने (इन्नै) अम्हारै (म्हारै) मौन (मन्नै) जैसे शब्द अतीत से वर्तमान की यात्रा-गाथा स्वयं ही कहते हैं ।।
आलेख काफी लम्बा हो रहा है । अतः कथाकोश की दो एक बातों की चर्चा केवल संकेत रूप में करेंगे । जहाँ तक इन कथाओं के शिल्प-विधान का प्रश्न है वह विविध रूपा है। कहीं मूलकथा के साथ अवांतर कथाओं के संयोग से कथा-कलेवर का विस्तार ही नहीं हुआ है अपितु उसे बहु आयामी भी बना दिया गया है, तो कहीं-कहीं उद्देश्य पर ही दृष्टि केन्द्रित कर बात को अतिसंक्षेप में प्रस्तुत कर उसे लघुकथा के अतिसन्निकट लाकर खड़ा कर दिया गया है । कहीं प्रश्नोत्तर या प्रहेलिका शैली का उपयोग कर कथाओं में चमत्कृति लाने का प्रयास हुआ है, तो कहीं-कहीं घटनाओं का तथ्यात्मक ब्यौरा देकर उन्हें इतिहास की सीमा रेखा में ला उपस्थित किया है। कुछ कहानियाँ संस्मरणों के निकट पहुँची हुई हैं तो कुछ एक चुटकले भर प्रतीत होती हैं । इन सबका कारण संकलित कथाओं को विशाल संख्या में निहित
जैसा कि पहले भी संकेत किया जा चुका है कि यह कथाकोश में सुनी-सुनाई कथाओं का संकलन है । अतः इसमें कथानकों की मौलिकता का तो प्रश्न ही नहीं उठता। हाँ इनकी शैली जयाचार्य की अपनी है । जयाचार्य ने सामान्य रूप से छोटे-छोटे सरस वाक्यों का प्रयोग किया है । दुरूह, जटिल एवं लम्बे वाक्यों का प्रयोग बहुत ही कम हुआ है। छोटेछोटे वाक्यों के माध्यम से बात को सरस एवं सुबोध रूप में प्रस्तुत करने में जयाचार्य सिद्ध हस्त रहे हैं। एक उदाहरण लीजिए—'वेनाटपुर नगर । मूलदेव राजा । देवदत्त गणिका । राज ऋद्ध सुख भोगवै । नगर में एक मण्डूक नामा चोर । दिन रा पगां में पाटा बांध राजमारग पर बैठो तूंणगर रो काम करै । रात रा नगर में खांत दे, धन ले, बावड़ी रै भंहरा में जाय, आपरी बहिन सहित रहै । यूं चोरी करतां धणोकाल व्यतीत हुओ।" इस प्रकार छोटे और सुगठित वाक्य-विन्यास से निष्पन्न यह सरसता और रोचकता बीच-बीच में प्रयुक्त मुहावरों और लोकोक्तियों से और अधिक बढ़ जाती
अन्त में निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जयाचार्य का 'उपदेश
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