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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
जैन धर्म एवं संस्कृति के प्रति जिज्ञासा भाव को प्रबल करते हैं।
जैन धर्म, दर्शन और संस्कृति के विविध उपादानों पर प्रकाश डालने वाला यह कथाकोश लोक-व्यवहार की भी समीचीन व्याख्या करता है । इस कथाकोश से लोक-व्यवहार की अनेक हितकारी एवं उपयोगी बातों की जानकारी भी होती है। विभिन्न परिस्थितियों में एवं विविध जनों के साथ कबकैसा व्यवहार उचित होता है, इसका ज्ञान भी इन कथाओं से होता है ।
__ अब थोड़ी सी चर्चा कथाकोश की भाषा के सम्बन्ध में कर ली जाए। जयाचार्य चूंकि कई भाषाओं के ज्ञाता थे । अतः उनकी भाषा में विविधता के दर्शन होते हैं। कहीं संस्कृत के तत्सम शब्दों की छटा है तो कहीं ठेठ देशी शब्दों का ठाठ । राजस्थानी में भी कहीं मारवाड़ी की प्रधानता है तो कहीं ढूंढाड़ी के रंग देखने को मिलते हैं। गुजराती का प्रयोग तो अपेक्षाकृत बहुलता से हुआ है । इसके स्पष्ट कारण भी हैं ! एक तो कुछ शताब्दियों पूर्व राजस्थानी ओर गुजराती भाषा एक ही थीं । अतः इनमें परस्पर काफी साम्य है । द्वितीय जैन साधुओं के लिए राजस्थान और गुजरात समान रूप से विचरण के क्षेत्र में रहे हैं। अतः अन्य लोगों की अपेक्षा उनकी भाषा पर गुजराती का प्रभाव कुछ अधिक ही है । कथाकोश की इन कहानियों में जहाँ एक ओर अहंकार, नित्य, सूर्य, पुनः, संयुक्त, दोष, द्रव्य, दृष्टि, श्रद्धा, मिय, दृष्टान्त, युक्ति जैसे अनेक तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है, वहीं बखाण, मिनख, आचारज, तृखा, कुरणा, मुगती, मेह, धवलो, साख्यात आदि अनेक तद्भव शब्द भी काम में आये हैं । संस्कृत तत्सम शब्दों के शुद्ध प्रयोगों के साथ ही जयाचार्य ने अनेक तत्सम शब्दों का राजस्थानीकरण भी किया है। जिन शब्दों के सहज-सरल तद्भव रूप नहीं बने हैं, उन्हें सायास विकृत करने के स्थान पर उनमें किंचित् परिवर्तन कर राजस्थानी प्रवृत्ति के अनुरूप ढाला है। यथा--प्रवर्ते, प्रसंस्या, परूपै, बनीताई जैसे अनेक प्रयोग दृष्टव्य हैं। तत्सम एवं तद्भव शब्दों की भाँति ठेठ राजस्थानी और गुजराती के शब्द भी उनकी विशाल शब्द-सम्पदा के साक्षी हैं। राड़, नीवांण बराण, रालया, ऊंदरा, ब्याळ , सोडियो, अंवळो जैसे राजस्थानी के अनेक ठेठ शब्दों का प्रयोग इन कहानियों में हुआ है। राजस्थानी के ठेठ शब्दों के साथ ही गुजराती के शब्द भी अपनी मौजूदगी का अहसास स्थान-स्थान पर करवाते हैं । अने, हिवं, पामैं , नत्थी, पोते, अनेरा, आदि ऐसे ही शब्द हैं । इन सबसे भिन्न अरबी-फारसी के अनेक शब्द भी इन कहानियों में प्रयुक्त हुए हैं। विशेष रूप से मुस्लिम जीवन या संस्कृति से संबन्धित प्रसंगों में बीबी, बांदी, खुदा, ताहिब, वजीर, अर्ज, गुनाह, हुक्म आदि शब्दों का प्रयोग बहुलता से हुआ है।
__ कयाकोश की भाषा एक अन्यदृष्टि से भी उल्लेखनीय बन पड़ी है।
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