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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
संकलन की भांति उनके पद्य-संकलन में भी मिलता है। प्रसंगानुकूल पद्यों के संकलन में तेरापंथी साधुओं से भिन्न अन्य जैन मतावलम्बी साधुओं एवं श्रावकों की रचनाओं का संकलन भी इस कथाकोश में उसी उत्साह एवं तत्परता से किया गया है। यही नहीं सूर, तुलसी, कबीर, बिहारी आदि कवियों की रचनाओं के संकलन में भी उन्हें कहीं संकोच का अनुभव नहीं हुआ है। इसी प्रकार संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और ब्रजभाषा के अनेक पदों का संकलन भी उनकी बहुज्ञाता, उदारता और तत्त्व-ग्राहिणी दृष्टि का परिचायक है।
इस कथाकोश की एक विशषता यह भी है कि कोशकार ने अनेक कथाओं को दृष्टान्त रूप में प्रस्तुत कर अन्त में उनकी व्याख्या भी अपने ढंग से की है। ये सारी व्याख्याएं स्वभावतः उपदेशप्रद रही हैं। इनमें भी जयाचार्य ने सर्वाधिक महत्व शिष्य की गुरुभक्ति, आचार्य-निष्ठा एवं उसकी अनुशासन-प्रियता पर दिया है। ऐसे अनेक उदाहरणों में उन्होंने सुविनीत एवं अविनीत शिष्यों के गुणावगुणों का विवेचन किया है। कथाकोश में ऐसे व्याख्या परक उदाहरणों की बहुलता से दो बातें ध्यान में आती हैं। प्रथम तो कोशकार ऐसे उदाहरणों को बार-बार दुहराकर अपने शिष्यों-प्रशिष्यों को समर्पित वृत्ति वाला बनाना चाहते थे। दूसरा, ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं उनके मन में शिष्यों द्वारा नव-पन्थ प्रवर्तन की चाह भर से गुरु-द्रोह या आचार्य-द्रोह किये जाने का अंदेशा भी था। उसी से प्रेरित होकर शायद अवचेतन रूप से ही उन्होंने इस एक पक्ष पर आवश्यकता से अधिक बल दिया। यद्यपि पूरे उपदेश रत्न कथाकोश में ऐसे पचासों उदाहरण मिल जायेंगे, फिर भी यहाँ उदाहरण रूप में एक का उल्लेख ही पर्याप्त होगा। "ज्यूं मोती लाल पंचपदांरी आसता राखी तो सुखी हुवो । भारी साहिबी पाई । त्यू धर्म री आचार्य री आसता राखै, प्रतीत राखे, अनुकूल पणे प्रवर्त, करड़ी काठी सीख दियां पिण कलुस भाव आणे नहीं। मन, वचन, काया करके आचार्य नै आराधे । जिण एक आचरण आराध्या तिण सरब नै आराध्या ।" शिष्यों को उद्बोधित करने वाली इन व्याख्याओं के अतिरिक्त भी अनेक कहानियों में धार्मिक एवं नैतिक जगत् से सम्बन्धित व्याख्याएं की गयी हैं । ऐसी व्याख्याओं में आचार्य की महिमा एवं दायित्व, साधु जीवन की विशेषता एवं उसमें आने वाली कठिनाइयों, श्रावक के आचार एवं विचार. साधुओं और आचार्यों के पारस्परिक सम्बन्ध, शुद्ध साधु और साधुत्व की विशेषता, गण बहिष्कृत एवं मिथ्यादृष्टि साधु के व्यवहार आदि अनेक पक्षों पर गम्भीरता से विचार किया गया है।
उपर्युक्त धार्मिक जगत् से जुड़े विविध विषयों की भाँति जयाचार्य ने
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