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________________ उपदेश रत्न कथाकोश : एक विवेचन १४७ बहुत सी सामग्री को सूत्र रूप में या संक्षिप्त रूप में संकलित किया है । द्वितीय जैन साधु चूंकि परम्परा से ही व्याख्यान पटु होते हैं, अतः कथाकोशकार की यह अपेक्षा भी उचित ही प्रतीत होती है कि ऐसे व्याख्यान पट्ट साधु-साध्वी प्रसंग और परिस्थिति के अनुरूप इन कथाओं का विस्तार स्वतः कर लेंगे । तुतीय जैन साधुओं की अपनी मर्यादाएं हैं । वे रस सिक्त कर देने वाले या आसक्ति बढ़ाने वाले प्रसंगों का विस्तार से वर्णन नहीं कर सकते । अतः ऐसी स्थिति में संक्षिप्ता एवं सांकेतिकता सहज अपेक्षित हो जाती है । उपदेश रत्न कथाकोश की दूसरी जो प्रमुख विशेषता हमारा ध्यान आकर्षित करती है वह है उसमें संकलित बुद्धि-कौशल से सम्बन्धित कथाओं की विपुलता । एक धर्म गुरु द्वारा संकलित कथाकोश में ऐसी कथाओं की प्रचुरता सहज रूप से यह उत्सुकता जगाती है कि धर्म, नीति और उपदेश मूलक कथाओं के साथ-साथ बुद्धि-चातुर्य से सम्बन्धित कथाओं को बहुलता के साथ क्यों संग्रहीत किया गया है। जब इस दृष्टि से विचार करते हैं तो कई तथ्य उभरकर सामने आते हैं। प्रथम में तो जैन परम्परा में औत्पत्तिकी, वैनायिकी, कर्मजा और पारिमाणिकी इन चार प्रकार की बुद्धियों का उल्लेख हुआ है । जैन आगम तथा आगमेतर साहित्य में इनसे सम्बन्धित अनेक व्याख्यान मिलते हैं । अतः जयाचार्य ने भी यहाँ उसी परम्परा का अनुसरण किया है । द्वितीय जयाचार्य स्वयं विलक्षण प्रतिभा एवं अनुपम बुद्धि के धनी थे । अतः उनका ऐसी कथाओं की ओर आकृष्ट होना सहज स्वाभाविक है । तीसरे संभवतः जयाचार्य ने यह भी महसूस किया कि व्याख्यानों को रोचक बनाने के लिए केवल धर्म, उपदेश, नीति या अध्यात्म सम्बन्धी कथाओं से ही काम नहीं चलेगा, अपितु अनेक बार जनमानस को प्रभावित करने के लिए इनसे भिन्न, बुद्धि को चमत्कृत कर देने वाले कथानकों का चयन भी अपेक्षित है । इसी दृष्टि से उन्होंने जैन कथाओं से भिन्न विशुद्ध लोककथाओं, ऐतिहासिक प्रसंगों एवं लोक-जीवन की प्रेरक घटनाओं का समावेश भी इस कोश में किया है । उपदेश रत्न कथाकोश को पढ़ते समय जयाचार्य के असाम्प्रदायिक और उदार दृष्टिकोण से भी सहज ही साक्षात्कार होता है । यों तो उनकी कथाओं के मूलस्रोत जैन साहित्य, जैन इतिहास एवं जैन पुराण ही रहे हैं, किन्तु इसके साथ ही साथ उन्होंने प्रसंगानुकूल हिन्दु धर्म एवं इस्लाम धर्म से सम्बन्धित अनुकरणीय एवं आदर्श कथानकों का संकलन भी इस कथाकोश में किया है। लोक-जीवन एवं इतिहास से भी उन्हें जहाँ कहीं भी प्रेरक एवं उपयोगी सामग्री मिली हैं उसका भी उपयोग करने में उन्हें किंचित् संकोच का अनुभव नहीं हुआ है। उनकी इस उदार दृष्टि का परिचय उनके कथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003137
Book TitleTerapanth ka Rajasthani ko Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevnarayan Sharma, Others
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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