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सुदर्शनचरित में सुदर्शन का चरित्र-चित्रण
शिवपुर वास । १२३ कामभोग दुःखावह हैं । उनका फल बड़ा कटु होता है। वस्तुतः जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है तब वह अन्दर और बाहर के अनेकविध ममत्व को उसी प्रकार छोड़ देता है जिस तरह महानाग केंचुली को। जैसे कपड़े में लगी हुई रेणु-रज को झाड़ दिया जाता है, उसी प्रकार वह ऋद्ध, वित्त, मित्र, पुत्र, स्त्री और सम्बन्धी जनों के मोह को छिटका कर निस्पृह हो जाता है। जब मनुष्य निस्पृह होता है तब मुण्ड हो अणगार वृत्ति को धारण करता है । जब मनुष्य मुण्ड हो अनगार वृत्ति को धारण करता है, तब वह उत्कृष्ट संयम और अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है । सुदर्शन शीलवत की रक्षा के लिए अपने वज्र संकल्प के आधार पर विरक्त हो मुनि बनता है 'इण उपसर्ग थी हूं बचू, तो लेसू संजम भार ।२४ उत्कृष्ट तप तपकर वह कर्म श्रृंखला को कमजोर बनाता है।
क्षमावान-सहना आत्मधर्म है । आत्मविजेता उत्पन्न कष्टों को अपने कृत कर्मों का परिणाम मानकर सहन कर लेता है, किसी दूसरे पर दोषारोपण नहीं करता। अभिया रानी काम की निष्फलता पर सुदर्शन को प्रताड़ित करती है, फांसी के फंदे तक पहुँचा देती है पर सुदर्शन अपने आत्मधर्म को नहीं त्यागता । वह यही चितन करता है-'म्हारे अशुभ कर्म उदे हुआ, हिवे काची आदरूं केम ।२५ कर्म तणी गति बांकड़ी रे, ते भोगावणी मुझे नेठ ।" ब्रह्मचर्य के प्रभाव से सेठ सुदर्शन शीलवान रूप में प्रकट होता है तो राजा क्रोधित हो अभिया रानी को मारने की सोचता है, उस समय सुदर्शन प्रार्थना के स्वर में कहता है-'तो अभिया राणी ने धाय री, आप दोयां री मत करो घात हो लाल । ......"यां तो कियो छे म्हांसू उपगार हो लाल ।'२७ राजा के द्वारा भी अकृत किया गया पर सुदर्शन ने क्षमा का दान देकर अपनी कीर्ति बढ़ाई । अभिया रानी अपने दुष्ट पापाचरण का पर्दाफाश होने पर लज्जित एवं क्रोधित हो आत्माघात कर बैठी, मरकर व्यन्तरी बनी । व्यंतरी योनी में भी सेठ सुदर्शन का पीछा करती है, कष्ट देती है पर ब्रह्मचर्य के प्रभाव से या देवप्रभाव से वह शान्त हो जाती है। अपने घोर अन्यायपूर्ण आचरण के लिए पश्चात्ताप करती है तथा क्षमा माँगती है । क्षमावीर सुदर्शन अपकारी को उपकारी मानकर कह देते हैं 'ओ उपगार छ सर्व तांहरो, थांसू नहीं म्हारे धेष लिगार हो ।'
मुनि सुदर्शन का ममत्वयोगी रूप यत्र-तत्र प्रकट हुआ है । हर स्थिति में हर परिस्थिति में समता ही उनका मूल मंत्र था 'तो पिण मुनिवर मूल डिग्या नहीं, राख्या समता भाव ।'२९ मुनिवर समें परिणामें सह्यो, कर्म किया चकचूर । इस प्रकार समता की निसेणी से उन्होंने मोक्ष की मंजिल को प्राप्त कर लिया। 'छूटा संसार ना दुख थकी, पहुता अविचल मोख हो ।
निष्कर्षतः इस चरितकाव्य का सबसे प्रधान गुण नायक के चरित्र का
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