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कालयशोविलास : विविध संगीतों का संगम
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मनड़ो लाग्यो रे, चितड़ो लाग्यो रे, खिण-खिण समरूं गुरु ! थांरो उपगार रे, किया विसराऊ म्हारां हिवडै रा हार ! मनड़ो" ० नेहड़लां री क्यारी रो म्हारी रो के आधार रै ?
सूक्यो सोतो जो इकलोतो सूनो सो संसार ० वज्राहत हूँ, मर्माहत हूँ पीड़ा रो नहिं पार रे ___ मैं ही जाणूं म्हारै मन री या जाणे करतार ० शासन देवत ! आ पिण केवत नहिं निबड़ी निस्सार रे
एक पक्खी प्रीतडी रो कच्चो कारोबार ० पीऊ-पीऊ कर बो पपीहो पुकार रे
मेहडलै नै हुई न होवै फिकर लिगार ० मोटा मिनख निहारै नांही पाछल रो प्यार रे मोख जातां वीर छोड़या गोयमजी ने लार"
मनड़ो"
उ. १, ढाल० ५/गा० ४, १४, १५, १६, १७ श्रद्धेय कालूगणी के पदारोहण के लिए भाद्रव पूर्णिमा का दिन निश्चित किया गया । और आपका जन्म है-फाल्गुन शुक्ला द्वितीया। इस तथ्य को चंद्रमा के रूप में सुप्रसिद्ध चंद व्याख्यान की एक राग-"भूमीश्वर अलवेश्वर कानन फेरे तुषार" में कितनी सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।
"भाद्रवि पूनम भावी, भावी-प्रगति-प्रतीक । नियता पूज्य पट्टोत्सवे, मंगलीक निर्भीक ।। दुतिया स्यूं प्रारंभी, लंबी जिण री लीक । सो साबत अब ऊगसी, रोहिणी धव रमणीक ।
उ० १, ढाल १२, गा० १०,११ पदारोहण वि० सं० १९६६ की साल हुआ। दो छह को "छक्कं छक्का" इस मुहावरे के साथ कितना संगत बिठाया गया है
करसी राज अचक्का, छक्कं छक्का देव । तिण स्यूं दो छक्का मिल्या, छयांसट्ठे स्वयंमेव ॥
उ० १, ढा० १२, गा० ३१ मातुश्री छोगांजी का चातुर्मास बीकानेर था । आप पदारोहण के बाद अपने पुत्र (कालूगणी) के दर्शन के लिए सुजानगढ़ पहुँचती हैं। वह प्रसंग "आज आणंदा रे" इस सरस राग में कितना मधुर लगता है
सूं सूं शीतलता हुई, हरस हिये असमाण । मोद न मावै चित्त में, लोयण अमिय भराण ॥ भनिमिष नयणां निरखती, जाणक अनिमिष-रूप । अद्भुत अनुभवती रती, चिन्तै चित अनुरूप ॥
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