________________
९६
(ग) व्यवहार दर्शन (घ) विचार दर्शन (क) तत्त्व दर्शन -
विकास यात्रा के विविध पहलू हैं । उनमें एक पहलू है 'तत्त्व - दर्शन' । तत्व - दर्शन के अभाव में व्यक्ति विकास की समग्र यात्रा नहीं कर सकता । यात्रा में पूर्णता तभी आती है जब उसे तत्त्व को समझने योग्य आंखें उपलब्ध होती हैं । तत्त्व का अर्थ है --होना ।
तत्त्ववेत्ताओं ने तत्त्वों का वर्गीकरण तत्त्व दो हैं— जीव और अजीव । जीव के निर्जरा और मोक्ष । अजीव के उपजीवी भगवान् महावीर ने कहा - " जीवाजीव अणायंतो कहं सो नाहिइ संजमं । " जो साधक जीव और अजीव को नहीं जानता है वह संयम का आचरण कैसे
किया है। जैन अभिमत में मूल उपजीवी तत्त्व हैं आश्रव, संवर, तत्त्व है-पुण्य, पाप और बंध !
करेगा ।
तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
स्वामीजी के सैद्धांतिक धारणाओं के कुछ सुमधुर संस्मरण प्रस्तुत
हैं—
१. तुम संज्ञी हो या असंज्ञी :
उदयपुर में स्वामीजी के पास एक वेशधारी साधु आया । उसने कहा- मुझसे प्रश्न पूछो ? स्वामीजी ने कहा – तुम हमारे पास आए हो फिर क्या प्रश्न पूछें। तब वह बोला कुछ तो पूछो। स्वामीजी बोले- तुम संज्ञी ( समनस्क) हो या असंज्ञी ( असमनस्क) । तब वह बोला- मैं संज्ञी हूँ । तब स्वामीजी बोले- इसका न्यात बताओ । तब वह बोला- नहीं, नहीं मैं असंज्ञी हूँ । तुम असंज्ञीहो इसका भी न्याय बताओ। तब वह बोलामैंन संज्ञी हूँ और न असंज्ञी हूँ । स्वामीजी बोले- तुम संज्ञी - असंज्ञी दोनों नहीं हो, यह किस न्याय से । तब वह क्रोधित होकर बोला- तुमने न्यायन्याय कर हमारे सम्प्रदाय को बिखेर दिया । वह जाते-जाते छाती में मुक्के का प्रहार कर चलता बना ।
२. राग-द्वेष की पहचान :
राग-द्वेष की भिन्न पहचान के लिए स्वामीजी ने दृष्टांत दिया । कोई बच्चे के सिर पर चोट मारता है । तब लोग उलाहना देते हुए कहते हैं, बच्चे के सिर पर क्यों मारते हो ? किसी ने बच्चे को लड्डू दिया या मूली दी उसे कोई नहीं रोकता । क्योंकि राग को पहिचानना कठिन है, द्वेष को पहिचानना सरल है ।
(ख) आचार दर्शन
जैसे दूध का सार नवनीत होता है। फलों का सार रस होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org