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तेरापंथ का राजस्थानी को अवदान
ओ खिण, बीजक झपकै ज्यूं आयो घरै,
ई बहुमोले री बस पकड़ लगाम लै । वर्तमान में जीने वाला न यादों की जुगाली करता है, न सपनों की सौदागरी । वह तो बस आगे से आगे चलता रहता है। कवि 'चरैवेतिचरैवेति' का यही सन्देश देते हुए कहता है
चाल आगे, के उडी कै और ने।
देख, सूरज की निकलती कोर ने। 'मिणकला और पगोथिया' के नाम से मुनि बुद्धमल्ल जी के दूहे प्रकाशित हो रहे हैं, जिनमें आत्मानुभव और लोकानुभव का सहज सम्मिश्रण हो गया है । आपकी हिन्दी कविता की एक पंक्ति है "भाषा क्या है ? भावों का लंगड़ाता-सा अनुवाद ।" लेकिन सत्य तो यह है कि चाहे गीत हो, कविता हो या दूहे हों, मुनि बुद्धमल्ल की भाषा कहीं लंगड़ाती हुई प्रतीत नहीं होती। दूहों की बानगी भी देख लीजिए--
बढ़ती बात पगोथिया, साधन बण जरूर । पण बां नै छोड़यां बिना, मैड़ी रैज्या दूर । के कर लेसी ताकड़ी, के कर लेसी बाट ।
तोलणिये री नीत जद, घड़सी ओघट घाट । वस्तुतः मुनि बुद्धमल्लजी राजस्थानी कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं और उणियारो राजस्थानी के काव्योत्कर्ष का एक ऊँचा कीर्तिमान स्थापित करने वाली रचना है।
मुनि मोहनलालजी आमेट ने अपनी राजस्थानी कविताओं में मुक्त छन्द का प्रयोग किया है । जगत् के 'अपार अंधकार और अन्तहीन उजाले' को आमने-सामने रख कर 'तथ र कथ' में कुछ निरपेक्ष निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया है । उनकी दृष्टि जगत् में व्याप्त द्वन्द्व और द्वैत पर केन्द्रित रही है, परन्तु उसे उन्होंने अन्तिम सत्य नहीं माना है। उनकी काव्य-सर्जना के मूल में वह अद्वैतमूलक दृष्टि है, जो सारे दृश्यमान भेदों को भेद कर अभेद का दर्शन करना चाहती है । इसीलिए, उनकी दृष्टि दर्शन और बाद के परे धर्म पर केन्द्रित है
दुंद स्यूं जलम्यो है/दरसण/घुटन स्यूं/निकल्यो है/वाद ।
धरम/दरसण है न वाद/वो तो है/मन रो अपरमाद । अगर पक्ष रहेगा तो प्रतिपक्ष कहां जाएगा? इसी सत्य को बिम्बात्मक अभिव्यक्ति देते हुए कवि ने कहा है
जींवती रैसी/झंपड़ी/ज, तांई कल्पना में है मैल मुनि 'दिनकर' और मुनि ‘मधुकर' की कविताएं कथ्य के साथ ही
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