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स्वकथ्य
धार्मिक जीवन जीनेवालों की अपनी चर्या होती है । उस चर्या के साथ कुछ अपरिहार्यताएं जुड़ी हुई हैं। प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि ऐसी अपरिहार्यताएं हैं, जिनके साथ वय, दायित्व, स्वास्थ्य आदि का भी अपवाद नहीं है । कुछ अनुष्ठानों के साथ इस प्रकार की प्रतिबद्धता नहीं है, फिर भी व्यक्तिविशेष के लिए वे अनिवार्य हो जाते हैं। उनमें एक उपक्रम है प्रवचन । यह ऐसा उपक्रम है जो आत्महित और परहित दोनों का साधक है। यह अपने लिए कर्मनिर्जरा तथा दूसरों के लिए दिशादर्शन का माध्यम बनता है। प्रवचन सुनकर कोई अपने जीवन की दिशा बदले या नहीं, यह प्रवचनकार की चिन्ता का विषय नहीं है ।
सूरज उगता है, फिर भी कोई कमल न खिले तो सूरज का क्या दोष ? मेघ बरसता है, फिर भी कोई किसान बीज न बोए तो मेघ का क्या दोष ? प्रवचनकार जीवन में रूपान्तरण घटित करने के गुर बता दे, फिर भी कोई उनका उपयोग न करे तो प्रवचनकार का क्या दोष ?
सामान्यतः लोग सुनने में रस अधिक लेते हैं। जो कुछ सुना जाता है, स्मृति में नहीं रह पाता। स्मृति में जितना रहता है, वह आचरण में नहीं उतरता। श्रवण और आचरण की दूरी को कम करने का एक उपाय है सुने हुए सिद्धान्तों का मनन । मनन के लिए पुन:-पुनः श्रवण या पठन आवश्यक है । इस आवश्यकता ने साहित्य का सृजन कराया।
ईस्वी सन् १९३६ में मैंने धर्मसंघ का दायित्व संभाला। लगभग छह दशकों तक प्रायः निरन्तर प्रवचन करने का प्रसंग बना। एक दिन में कई बार प्रवचन करने के अवसर भी आए। उन सब प्रवचनों को संकलित करने का न तो कोई लक्ष्य था और न ऐसी सुविधा भी थी। कुछ व्यक्तियों ने अपनी इच्छा से और कुछ लोगों ने किसी की प्रेरणा से प्रवचन लिखने शुरू किए। वे समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए। इधर के कुछ वर्षों में प्रवचनों के सलक्ष्य संकलन किए गए।
प्रवचन एक ऐसी विधा है, जिसमें कठिन-से-कठिन बात को सरलता से प्रस्तुति दी जा सकती है। प्रवचनकार स्वान्तः सुखाय प्रवचन करे और संकलनकार स्वान्तः सुखाय संकलन-यात्रा करे तो श्रोता और पाठक सहज रूप में लाभान्वित हो सकते हैं। प्रवचन-साहित्य के प्रति पाठकों की
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